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________________ संख्या ५] कलिंग युद्ध की एक रात ४५५ रही हो, जैसा कि आज-कल यहाँ, तो समझ लो कि संसार से दूर रहना चाहिए, भरी जवानी में मैं अपने वहाँ 'तुम' और 'मैं' हमारे शत्रु और हमारे साथी दिल में कैसे स्थान हूँ ? और फिर मृत्यु के (पहरेदार गुज़रता है) रहस्य को समझने के लिए भी तो आयु की प्रौढ़ता मुर्दो की तरह ही हैं, जिनकी आत्मायें किसी दूसरे चाहिए । पर इस बर्बरता के राज्य में हमारे सामने रहस्यमय संसार के छोर पर बिचर रही हो । उसका नग्न नृत्य दिन-रात कराया जा रहा है । वसंतयुद्धजित, अब हमारी वह अवस्था कहाँ है, कुमार, मैं अपने जीवन के पहले ढंग को तिलाञ्जलि जो हमारे दिलों की गहराइयों में शत्रुता, द्वेष-भाव, दे चुका हूँ। वे रंगीन स्वप्न और महत्त्वाकांक्षायें घृणा या इस प्रकार के दूसरे विकारों का प्रवेश हो विस्मृति के गढ़े में चली गई हैं, पर मुझे मेरी जन्मसके।...... भूमि की याद नहीं भूलती। मेरी बस्ती के फलों से हम उस अवस्था को पार कर चुके हैं। संसार लदे हुए पेड़, निर्मल जल की बहती हुई नदियाँ. के ये राजमुकुटधारी एक दूसरे से घृणा कर सकते हैं झरनों के श्राह्लादकारी गीत, हरी-भरी घाटियाँ और या धर्म के ठेकेदार नंगे सिरवाले ये भिक्षु जिनका विशाल पर्वत-शिखरों का चित्र मेरी आँखों के सामने अभिमान इन मुकटधारी राजाओं से भी बढ़कर है खिचा रहता है। साँझ का घर लौटते हुए ढोरों के और जो शायद यह समझते हैं कि मनुष्यों की परस्पर गले की घंटियों की मीठी आवाज़ अब भी मेरे कानों सहानुभति उन्हें उनके उच्च पद से डिगा देगी वे एक- में सुनाई दे रही है । तुम्हीं बताओ, इन्हें मैं दिल से दुसरे के विरुद्ध ज़हर उगल सकते हैं या ईश्वर के कैसे निकाल दें। प्रतिनिधि ये भूदेव एक दूसरे के विरुद्ध घृणा का वसंतकुमार-युद्धजित, तुम ठीक कहते हो । जन्म-भूमि प्रचार कर सकते हैं । शत्रुता और वैर-भाव को अपने की छोटी छोटी प्यारी चीज़ों की मधुर स्मृति से हृदय दिलों में वही स्थान दे सकते हैं। हम तो केवल . अधीर होने लगता है। पाटलीपुत्र में मेरा घर ठीक इसलिए हैं कि इन मुकुटधारियों और धर्म के ठेके- पतितपावनी गङ्गा के किनारे है, जहाँ गङ्गाजल के दारों की क्रूर इच्छात्रों के इशारे पर मरें या दूसरों कणों से लदे हुए हवा के झोंके मेरे हर वक्त के को मारें। साथी थे। दिन भर मैं माँझियों को माल से पुद्धजित—यह तो नहीं कि समय गुज़रने के साथ हमारा लदी हुई कश्तियों को खेते हुए देखा करता था। उत्साह ठंडा पड़ गया है या यह कि दिल अपने उनकी सुरीली तानें अब भी मेरे कानों में गूंज रही हैं। कर्तव्य-परायणता के धर्म से उकताने लग गया हो। वहीं मैंने अपनी कुछ चुनी हुई कवितायें लिखी थीं। नहीं, हर्गिज़ नहीं । मैं इस समय भी चक्रवर्ती प्रियदर्शी युद्धजित—तुम्हारी सुन्दर कवितात्रों ने गंगा के किनारे सम्राट अशोक के लिए अपने प्राण न्योछावर कर पर जन्म लिया है। वहाँ कश्मीर में मैं भी मनोहर सकता हूँ। मृत्यु का समय तो नियत हो चुका है, स्वप्नों के संसार में रहा करता था। पर मेरे स्वप्न चाहे वह घड़ी अाज-इस रात को अभी पा जाय । पर तुम्हारी कविताओं का रूप धारण न कर सके । मेरा श्राह ! इस बात को मैं कैसे भूल जाऊँ कि मेरा यह स्वर्ण-स्वप्न एक आदर्श समाज की सृष्टि करना चाहता कौमार्य जिसमें जीवन की उमंगें भरी हैं, जो सैकड़ों था। मैं एक ऐसी संस्कृति और नीति को जन्म देना महत्त्वाकांक्षाओं को दिल में लिये है, जो गृहस्थ- चाहता था जो इस संसार के इतिहास में एक नई जीवन के सुखी बहाव में बहना चाहता है, जिसमें चीज़ होती। मैं इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाना चाहता प्रेम की हिलोरें लेने की उत्कट अाकांक्षा है, जो अमर था, जहाँ हर एक प्राणी स्वतन्त्र हो । मैं झोंपड़ियों यश का भूखा है, बताश्रो कुमारावस्था की इन . में भी राजमहलों का-सा सुख लाना चाहता था। उमंगों, आकांक्षाओं और उसके सुख-स्वप्नों को भूल- अनीति से दबे हुए हर प्राणी की आत्मा में मैं एक कर मौत के भयानक विचारों को जिन्हें कौमार्य के :- नया जीवन फूंक देता और उन्हें अटल विश्वास दिला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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