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________________ ५९२ सरस्वती सी बात में रुष्ट होनेवाली हूँ नहीं । अच्छा, आप सच सच बतलाइए कि भाभी आपको पसन्द आई या नहीं। सन्तोष ने गम्भीर कण्ठ से कहा- मेरी पसन्द या पसन्द से क्या होना जाना है सुत्रमा ? बाबू जी ने विवाह किया है, वे ही समझेंगे | मैं कौन होता हूँ ? सुषमा ने संशयपूर्ण कण्ठ से कहा - यह क्या कह रहे हैं भैया ? आपके मुँह से तो इस तरह की बात नहीं शोभा `देती । आप पढ़े-लिखे हैं । श्राप यदि मूर्खों के से काम करेंगे तो भला दस आदमी आपको क्या कहेंगे ? इस तरह की बात को मन में स्थान देकर क्या आप अन्याय नहीं कर रहे हैं ? वह बालिका है । उसका क्या अपराध १ उसे इस तरह उपेक्षामय अवस्था में रखना क्या उचित है ? जिस दिन वह अपनी इस अवस्था का अनुभव कर सकेगी, उस समय - उसका हृदय कितनी वेदना से परिपूर्ण हो उठेगा, यह भी आपने कभी सोचा है ? ज़रा सोचिए तो कि आपके इस तरह के व्यवहार से कितने लोग दुःखी हो रहे हैं । सम्भव है कि यह बात आपको बहुत ही साधारण-सी जान पड़ती हो, किन्तु वास्तव में यह इतनी साधारण नहीं है । आपके वृद्ध पिता आपके व्यवहार से कितना कष्ट पा रहे हैं, क्या आपने कभी इस पर विचार किया है ? उन्हें दुःखी करना क्या आपके लिए उचित है ? सन्तान चाहे कितने भी अपराध करे, वह सब माता-पिता नीरव भाव से सहन करते जाते हैं । सन्तान के अमङ्गल की श्राशङ्का से नेत्रों I का जल तक रोक रखने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनका हृदय कितनी वेदना से परिपूर्ण है, यह भी आपने किसी दिन सोचा है ? इस वेदना का फल अवश्य ही हम लोगों को किसी न किसी दिन भोगना पड़ेगा । कर्मफल का भोग किये बिना कोई रह नहीं सकता। आप भी न रह सकेंगे । • क्षण भर चुप रहने के बाद सुषमा फिर बोली | वह कहने लगी---विवाहिता पत्नी के प्रति पुरुष का कर्त्तव्य क्या है, यह क्या आपको मालूम नहीं है ? उसकी उपेक्षा करके आप कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं ? इसे चाहे आप श्राज न भी समझ सकें, बाद को तो समझना ही पड़ेगा । उस समय आपको यह मालूम होगा कि अनुताप की पीड़ा कैसी होती है । अब भी मैं पसे कहे देती हूँ | बुरा मानने की बात नहीं है। जो कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ कर गये, वह कर गये, उसके लिए अब कोई उपाय नहीं है । अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। आप ज़रा-सा सावधान होकर विचार कीजिए। ईश्वर पर विश्वास रखिए, एक दिन वह आपको शान्ति देगा । स्त्री को सुखी करने का प्रयत्न कीजिए, मोह त्याग दीजिए । स्मरण रहे कि मनुष्य के लिए असाध्य कुछ भी नहीं है । और एक सन्तोष इतनी देर तक मौन भाव से सुषमा की बातें सुन रहा था । उसके शान्त होते ही लड़खड़ाती हुई श्रावाज़ से उसने कहा- मुझसे कुछ मत कहो, मुझसे यह नहीं होने का । इससे अधिक वह कुछ भी नहीं कह सका, चुप होकर सुषमा के मुँह की ओर ताकने लगा । उसने देखा कि सुषमा के मुख-मण्डल पर क्रोध की रेखा उदित हो आई है। क्षण भर के बाद सुषमा ने कहा - लीजिए, आपका मकान आ गया । अत्र श्राप उतर जाइए । मैं भी चलूँगी । विलम्ब हो गया है । मा मेरी राह देख रही होंगी । श्राप तो कभी ये ही नहीं । मोटर द्वार पर आकर खड़ी होगई । सन्तोष उस समय सोच रहा था, सुषमा को यह समझा दूँ कि मैं क्यों नहीं उसके यहाँ जा सका, कितने कष्ट से मैंने उसने परिवार से सारा सम्पर्क छोड़ रखा है । क्या यह सुषमा समझ सकती है ! वह यदि यह सब समझ पाती तो क्या इस तरह की बात कर सकती थी ? सन्तोष की विचारधारा में व्याघात डालते हुए सुषमा ने कहा- घर आ गया है । उतरिए। इतना क्या सोच रहे हैं ? मोटर पर से उतर कर सन्तोष खड़ा हो गया। सुषमा ने कहा - तो अब मैं चलती हूँ सन्तोष भाई । कह नहीं सकती कि कब तक मुलाक़ात होगी । सुषमा ने सोफर घर चलने को कहा | मोटर चल पड़ी । अब सन्तोष के मन में यह बात आई कि सुषमा को ज़रा-सा रुक जाने को कहूँ। क्षण भर तक उसे और जी भर कर देख लूँ | क्या उससे फिर कभी मुलाक़ात हो सकेगी ? सम्भव है कि यही अन्तिम भेट हो । एकान्त में बैठ कर सन्तोष सुषमा के ही सम्बन्ध की तरह तरह की बातें सोचने लगा । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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