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सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
फ़रवरी १६३७
भाग ३८, खंड १ संख्या २, पूर्ण संख्या ४४६१
माघ १६६३.
क्या जगत् में भ्रान्ति ही है ?
लेखक, श्रीयुत नरेन्द्र, एम० ए० एक दिन पूछा विचरती वायु से मैंने, “कहो क्या- कभी क्रीड़ास्थल बनाती शान्ति भी है ?
चिर-विकल विक्षिप्त सागर; . क्या जगत में भ्रान्ति ही है ?"
"वायु बोला, क्या कहीं कुछ शान्ति भी है ? "है तुम्हारे विशद पथ में
क्या जगत् में भ्रान्ति ही है ?" नगर, ग्राम; उजाड़ उपवनः गीत मेरा सुन, स्वयम संगीतमय हो वायु कहतीमार्ग में घर और मरघट,
"है न जाने कौन-सा कोना जहाँ, कवि, शान्ति रहती ? महल औ' पावन तपोवन;
"किन्तु जाऊँ, खोज आऊँ"तुम अचल आकाश के
क्या कहीं कुछ शान्ति भी है ?" उर में रमा करती निरन्तर,
क्या जगत में भ्रान्ति ही है ?
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