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संख्या ६ ]
जब काम का वक्त आया तब वह हमें बिलकुल छोड़ गये...... उनकी चुप्पी पर हममें बहुत मायूसी और नाराज़गी फैली। तब से मेरे दिल में यह विश्वास घर कर गया है कि श्री शास्त्री कर्मवीर नहीं हैं और संकट काल उनकी प्रतिभा के अनुकूल नहीं पड़ता ।" (पृष्ठ ४१ )
एक स्थान पर तिलक के प्रमुख शिष्य श्री खापर्डे और माडरेट नेता सर रासविहारी घोष की बातचीत का प्रसंग है । वह इस प्रकार है
" खापर्डे कहने लगे कि गोखले ब्रिटिश सरकार के एजेन्ट थे । उन्होंने लन्दन में मेरे ऊपर भेदिये का काम किया ।...... सर रासविहारी बोले- गोखले पुरुषोत्तम थे I मैं किसी को उनके ख़िलाफ़ एक शब्द न बोलने दूंगा । तब खापर्डे श्रीनिवास शास्त्री की बुराई करने लगे । लेकिन उन्होंने कोई नाराज़गी नहीं दिखाई। इसके बाद श्री खापर्डे उनके मुक़ाबिले में तिलक की तारीफ़ करने लगे । बोले— 'तिलक निस्सन्देह महापुरुष, एक आश्चर्यजनक पुरुष, महात्मा हैं ।' सर रासबिहारी बोलेमहात्मा ! मैं ऐसे महात्मानों से नफ़रत करता हूँ ।"
इसी प्रकार लिबरल पार्टी की नीति और उसके नेताओं के बारे में अनेक प्रसंग आये हैं, जिनसे बड़ा मनोरंजन होता है तथा तत्कालीन लिवरल नेताओं के सम्बन्ध में जो कांग्रेस के भी कर्ताधर्ता थे- व्यक्तिगत बातें मालूम होती हैं। साथ ही इससे उनकी विचारप्रवृत्तियों का भी अनुमान लगाया जा सकता है ।
ख़िलाफ़त - ग्रान्दोलन, मुसलमान नेताओं और सम्प्रदायवादियों पर ऐसा जान पड़ता है कि नेहरू जी की प्रारम्भ से ही वक्रदृष्टि रही है । 'मेरी कहानी' में इनकी तीव्र आलोचना की गई है। मुसलमानों के नेता श्री मुहम्मद अली जिन्ना के व्यक्तित्व का चित्रण बड़ी ख़ूबी के साथ हुआ है । एक स्थान पर लिखा है—
जवाहरलाल नेहरू
" सरोजिनी नायडू ने उन्हें (मि० जिन्ना) 'हिन्दूमुसलिम एकता का दूत' कहा था. उस खद्दरधारी भम्भ में जो हिन्दुस्तानी में व्याख्यान देने का मतालबा करती थी, वह अपने को बिलकुल बेमेल पाते थे ।...... आगे जाकर एकता का यह पुराना एलची उन प्रतिगामी लोगों में मिल गया जो मुसलमानों में बहुत ही सम्प्रदायवादा थे ।"
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मौलाना मोहम्मद अली देश के बड़े मुसलिम नेताओं में थे, किन्तु 'कोकानडा की कांग्रेस और मुहम्मद अली' शीर्षक परिच्छेद को पढ़कर मौलाना साहब के विचारों का पूर्णतया बोध हो जाता है। पंडित जी ने अली भाइयों को उसी वक्त से सम्प्रदायवादी समझ रक्खा था जब वे ख़िलाफ़त आन्दोलन के कर्ताधर्ता थे और कांग्रेस के स्तम्भ थे। नेहरू जी के मत के अनुसार - "अली भाइयों ने भी, जो ख़ुद मज़हबी तबीयत के आदमी थे, इस सिलसिले Par (मौलवियों का प्रभाव बढ़ाने में) और ताक़त दी । " ली बन्धुत्रों के सम्बन्ध में दो अवतरण अधिक रोचक हैं
" मुहम्मद अली ने कहा- कोई भी कुरान को अपने दिमाग़ का दरवाज़ा खोलकर और एक जिज्ञासु की भावना से पढ़ेगा तो ज़रूर ही वह उसकी सचाई का कायल हो जायगा । उन्होंने यह भी कहा कि बापू (गांधी जी) ने उसे ग़ौर से पढ़ा है और वे ज़रूर इस्लाम की सचाई के क़ायल हो गये होगे । लेकिन उनके दिल की मग़रूरी उन्हें उसको ज़ाहिर करने से मना करती है ।" (पृष्ठ १४६ )
"लाहौर कांग्रेस के वक्त आखिरी दफ़ा, मैं उनसे मिला था ।...... उन्होंने मुझे गम्भीर चेतावनी दी - 'जवाहर ! मैं तुम्हें चेताये देता हूँ कि तुम्हारे आज के ये साथी-संगी सब तुमको अकेला छोड़ देंगे । जब कोई मुसीबत का और आन-बान का मौका श्रायेगा उसी वक्त ये तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। याद रखना खुद तुम्हारे कांग्रेसी ही तुम्हें फाँसी के तख़्तें पर भेज देंगे।' कैसी मनहूस भविष्यवाणी थी !” (पृष्ठ १४७)
कांग्रेस आन्दोलन और उसके नेतात्रों की नीति पर भी 'मेरी कहानी' में आलोचनात्मक दृष्टि डाली गई है। अपने पिता स्वर्गीय पंडित मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, पं० मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, देशबन्धु दास, जे० एम० सेन गुप्त, अब्दुल गफ्फार खाँ, डाक्टर अन्सारी, हकीम अजमल ख़ाँ आदि का भी प्रसंग के अनुसार ज़िक्र किया गया है। इनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में अनेक नई बातें मालूम होती हैं। अपने पिता . पंडित मोतीलाल नेहरू का चरित्र चित्रण बड़ी खूबी, सचाई और निष्पक्षता से किया है। पंडित मोतीलाल जी स्वभाव के उग्र, ज़िद्दी और कांधी थे। लेकिन इसके सिवा बुद्धिमान्, स्वाभिमानी और श्रान-बानवाले भी थे ।
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