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________________ ७६ अच्छा होगा । बात यह है कि शहर में अब डाक्टरों का कोई भाव नहीं है । परन्तु हमारे देहातों की अवस्था आज भी बहुत ही शोचनीय है । वहाँ तो कितने ही ग़रीब दुखिया चिकित्सा न हो सकने के ही कारण मर जाया करते हैं । श्रतएव हम लोगों का यह पहला कर्तव्य है कि उनका यह अभाव दूर करें । परन्तु श्राज-कल लड़कों का ध्यान इस ओर नहीं जाता। बहुधा तो वे पिता, पितामह का घर छोड़कर शहर में भाग याना ही पसन्द करते हैं। ठीक कहता हूँ न ? सन्तोष ने मृदु स्वर से कहा- जी हाँ, आपका कहना बिलकुल ठीक है। आज कल सचमुच हम लोग शहर में ही रहना अधिक पसन्द करते हैं । परन्तु मेरे पिता जी को शहर बिलकुल ही पसन्द नहीं है । मैं जहाँ तक समझता हूँ, वे मुझसे सिराजगंज में ही प्रैक्टिस करने को कहेंगे । एकाएक हाथ की घड़ी की ओर सन्तोष की दृष्टि गई । कवि, क्या सचमुच गा न सकोगे ? कातर - क्रन्दन में क्या अपना कोमल-कण्ठ मिला न सकोगे ? यहाँ मय की वायु न बहती, किसको विरह-वेदना दहती । नक्षत्रों में पद ध्वनि 'उनकी', कोई 'मूक संदेश' न कहती । उतर अवनि पर शून्य- लोक से, सरस्वती कवि क्या सचमुच गा न सकोगे ? लेखक, श्रीयुत व्रजेश्वर, बी० ए० पल भर उसे भुला न सकोगे ? यहाँ भूक की जलती ज्वाला, यह कोमल कान्ता 'मधुबाला' । लुटालुटा कितने भी मधुघट, मेट न सकती कष्ट-कसाला | छोड़ नशे की बान, मानवों का दुख-भार बँटा न सकोगे ? ये कंकाल शेष नर-नारी, भेल वेदना जग की सारी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ वे तुरन्त ही उठ कर खड़े हो गये । उन्होंने कहा - श्राज मुझे छः बजे एक जगह जाना था। परन्तु छः यहीं बज रहे हैं। इससे मैं इस समय आपसे आज्ञा लेना चाहता हूँ । 1 अनिल फाटक तक सन्तोत्र को पहुँचा श्राया । सुप्रमा की मास्टरानी आई थी, इसलिए इससे पहले ही वह पढ़ने चली गई थी । सन्तोष के चले जाने पर अनादि बाबू ने कहा- देखो, यदि दामाद बनाना हो तो सन्तोष ही जैसा लड़का खोजना चाहिए। यह लड़का जैसा नम्र है, वैसा ही चरित्रवान् भी है, मानो हीरे का टुकड़ा है। गृहणी ने एक हल्की-सी ग्राह भरकर कहा- क्या हमारे ऐसे भी भाग्य हो सकते हैं ? अनिल से सुना था कि उसके पिता कट्टर सनातनी हैं। यह बात यदि सच है। तो भला वे हमारे घर की लड़की कैसे ग्रहण करेंगे ? यह हमारी नितान्त ही दुराशा है । परन्तु इस लड़के का जब से देखा है तब से मुझे ऐसी कुछ ममता हो गई है कि तुमसे क्या कहूँ । श्राह ! बेचारे की मा नहीं है । काल- कूट-सा स्वयं ग्रहणकर, पाल रहे हैं देह हमारी । बन उनके, उनकी सी कहकर, पल भर उन्हें हँसा न सकोगे ? भूल गये हम भाई-चारा, प्रेमी बन बैठा हत्यारा । धनिकों के इस यन्त्र - जाल में, भटक रहा मानव बेचारा । छिन्न-भिन्न मानवता के क्या, फिर संबंध जुड़ा न सकोगे ? थान प्रथम कवि स्वयं वियोगी, मानव का पथदर्शक योगी । सह न सका जग का उत्पीड़न, इसी लिए रो पड़ा अभोगी । औरों की सुख-दुख-गाथा की कोई बात सुना न सकोगे ? कवि क्या सचमुच गा न सकोगे ? www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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