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________________ संख्या १] शनि की दशा भैया ? लड़का लोटे में जल रख तो गया है। यहीं हाथ अनिल इस पर सहमत हो गया। फिर से सन्तोष और धो न लो! सुबमा दोनों ने खेलना प्रारम्भ किया। वे दोनों ही __ तब सन्तोष बाबू ने कहा--हमारी छुटपन से ही इस घूम घूम कर खेल रहे थे। इस खेल का यह नियम ही तरह की आदत हो गई है न। इससे जब कभी हाथ है। इस बार सन्तोष अच्छी तरह खेल न सका। उससे धोना होता है तब मैं अकस्मात् बाहर निकल पड़ता हूँ। बराबर भलें होने लगीं, ऐसा होना स्वाभाविक था। एक दिन कालेज से लौटते समय अनिल सन्तोष को बात यह थी कि सन्तोष की दृष्टि लगी थी एकाग्र भाव से फिर पकड़ ले आया। जलपान आदि से निवृत्त होने पर सुषमा के मुखमण्डल पर। फिर भला खेल में उससे अनिल ने कहा-चलो, ज़रा बिलियार्ड खेला जाय। भलें क्यों न होतीं ? अन्त में वह हार गया । तब अनिल सन्तोष ने कहा - आज मुझे एक जगह जाना है ने कहा- ठीक कहती थी सुषमा ! मेरे ही कारण से भाई। आज मुझे खेलने का समय कहाँ है ? तू उस बार हार गई थी। उनके मह की ओर ताक कर अनिल ने कहा- सुषमा ने मुस्करा कर धीमे स्वर से कहा-देख तो लिया कितने बजे ? भैया तुमने । मैं क्या मिथ्या कह रही थी ? यह कह कर वह "छः बजे जाना होगा।" हँसती हुई चली गई। सुषमा के दृष्टि-पथ से परे हो जाने "तब श्राश्रो, ज़रा-सा खेल लें। अभी तो बहुत पर उसकी अोर से मँह फेर कर अनिल ने देखा तो सन्तोष समय है।" का ध्यान उसी अोर जमा था। अनिल के इस अोर दृष्टि __ अनिल सन्तोष को बिलियार्ड रूम में खींच ले गया। फेरते ही सन्तोष लज्जित हो उठे और नीचे की ओर वे दोनों ही खेलने के लिए बैठ गये। बड़ी देर की हार- देखने लगे। जीत के बाद वे दोनों बड़े ध्यान से खेल रहे थे। इतने ज़रा देर तक चुप रहकर अनिल ने कहा -अायो भाई में सुषमा ने अाकर कहा-भैया, तुम्हें बाबू जी बुला सन्तोष, एक बार फिर खेला जाय । रहे हैं। सन्तोष ने कहा-नहीं भैया, मुझे क्षमा करो । आज मह ऊपर किये बिना ही अनिल ने कहा-क्या काम अब खेलने को जी नहीं चाहता । बड़ी थकावट मालूम पड़ है सुषमा ? रही है। सुषमा ने कहा---यह तो मुझे नहीं मालूम है। अनिल ने मुस्कराकर कहा--अच्छा, तो चलो तब और कोई उपाय न देखकर अनिल उठने के बाहर चलें । यहाँ बड़ी गर्मी मालूम पड़ रही है। लिए बाध्य हुआ। सुषमा की ओर देखकर उसने कहा- सन्तोष और अनिल दोनों ही कमरे से निकल कर तो मेरी जगह पर तू ज़रा देर तक खेल । मैं सुन आऊँ। बरामदे में आये। अनादि बाबू अपनी स्त्री तथा सुषमा सुषमा इस पर सहमत हो गई। बड़ी देर के बाद अनिल के साथ वहीं बैठे थे। इन लोगों को देखते ही उन्होंने जब लौट कर आया तब उसने देखा कि खेल प्रायः समाप्त कहा--अाश्रो भैया, यहीं बैठो।। हो पाया है। इससे वह चुपचाप खड़े खड़े देखने लगा। दोनों ही मित्र बैठ गये। कुछ देर तक तरह-तरह की क्रमशः खेल समाप्त हो गया। इस बार सुषमा हार गई। बात-चीत होती रही। अन्त में अनादि बाबू ने सन्तोष से सुषमा को चिढ़ाने के लिए अनिल ने कहा-छिः! पूछा-भैया, तुम्हारा तो अब एक ही साल का कोर्स बाकी छिः ! सुषमा, तू हार गई ? है । कहाँ प्रैक्टिस करोगे. कुछ सोचा है ? अभिमान-मिश्रित स्वर में सुषमा ने कहा—तुम्हारे ही सन्तोष ने मुँह नीचा किये हुए उत्तर दिया-अभी तक कारण तो मुझे इस तरह का अपमान सहन करना पड़ा है। तो कुछ निश्चय नहीं किया । देखें पिता जी क्या कहते हैं । यदि आरम्भ से ही मैं खेलती होती तो मैं कभी न हारती। अनादि बाबू ने कहा-यही ठीक है। उनकी जैसी खेल तो तुमने पहले से ही बिगाड़ रखा था । अच्छा, तुम आज्ञा हो, वही करना तुम्हारा धर्म है। परन्तु मैं तो ज़रा-सा ठहर जाश्रो, इस बार देखना मेरा खेल । समझता हूँ कि गाँव पर ही प्रैक्टिस करना तुम्हारे लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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