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________________ सरस्वती [ भाग ३८ यह बात कहते कहते वे भीतर की ओर जाने को ही जिस दिन उन्हें यह बात मालूम हुई, उसी दिन मानो थीं कि पीछे से किसी की आवाज़ सुनाई पड़ी। इससे उन्होंने सन्तोष के मातृस्नेह के अभाव को दूर करने की उन्होंने मस्तक पर का कपड़ा ज़रा-सा खींच लिया और प्रतिज्ञा कर ली थी। सन्तोष भी उन्हें माता की ही तरह पुत्र को आगन्तुक से बातचीत करने का इशारा करके मानता था। स्वयं बरामदे में हो गई। क्षण भर में एक परिपक्व अनादि बाबू ने इतने समय में बहुत-सा धन एकत्र अवस्था के पुरुष को साथ लेकर वह आ खड़ा हुआ। कर लिया था। परिवार में स्त्री, पुत्र तथा एक कन्या के श्रागन्तुक को देखकर दत्त-बहू ने अपना यूँघट और खींच अतिरिक्त और कोई नहीं था। उनकी कन्या सुषमा उस लिया । उनका पुत्र माता की ओर अग्रसर होकर कहने समय बेथून-कालेज में पढ़ रही थी। एक ही वर्ष में लगा-ये सज्जन कहीं जा रहे हैं । परन्तु ऐसे पानी में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा देनेवाली थी। रात के समय आगे जाना कठिन है, इसलिए कहते हैं कि सुषमा माता-पिता की बड़े आदर की कन्या थी। मुझे ज़रा-सी जगह दे दीजिए। वह जिस बात के लिए अड़ जाती थी, अनादि बाबू अपनी ___गृहणी ने इशारे से पुत्र को अपनी स्वीकृति दे दी। शक्ति भर उसे पूरा किये बिना नहीं रहते थे। इसी लिए तब आगे बढ़कर वृद्ध ने कहा-मा, तुम मुझसे लज्जा न कभी कभी उनकी स्त्री कहा करती थी कि तुम लड़की का करो। मैं शैशव-काल में ही मातृहीन हो गया हूँ। माता मिजाज़ आसमान पर चढ़ाये जा रहे हो। का स्नेह कैसा होता है, यह मैं नहीं जानता। आज से स्त्री की यह बात सुनकर अनादि बाबू हँस दिया आप ही मेरी मा हैं। ____ करते थे। वे कहा करते थे कि इसके लिए तुम चिन्ता मत ___ इसके बाद उन्होंने उनके पुत्र की ओर इशारा करके करो। बड़ी होने पर क्या मेरी सुषमा ऐसी ही रहेगी ? कहा-यह लड़की कौन है ? विशू ने संक्षेप में उसका उस समय तुम देखोगी कि मेरी सुषमा कितनी सीधी-सादी परिचय दिया। बासन्ती की अतुलित रूपराशि देखकर और विनयशील हो गई है। इसी तरह सुषमा के सम्बन्ध अागन्तुक ने मन ही मन कहा-लड़की है तो अच्छी। में पति-पत्नी में प्रायः कहा-सुनी हया करती थी। कभी कभी दिखाने के लिए थोड़ा-बहुत मान-अभिमान भी हो दूसरा परिच्छेद जाया करता था। दुराशा पहले-पहल सन्तोष बाबू जब इनके यहाँ खाने के लिए सिराजगंज के ज़मींदार राधामाधव बाबू के पुत्र सन्तोष- गये तब उन्हें बहुत झपना पड़ा था। कमरे के भीतर पैर कुमार अपने कलकत्तेवाले मकान में रहते और मेडिकल रखने से पहले ही उन्होंने जूता उतार दिया था। उन्हें ऐसा कालेज में पढ़ते थे। कलकत्ते में अनादि बाबू नामक करते देखकर सुषमा हँसते हँसते लोट-पोट हो गई थी। एक बैरिस्टर थे । उनका लड़का भी मेडिकल कालेज में बाद को जलपान की सामग्री समाप्त करके हाथ धोने के पढ़ता था। उससे सन्तोषकुमार की बड़ी घनिष्ठता थी। लिए जब वे कमरे से बाहर आकर खड़े हुए तब वह कालेज से लौटते समय वे प्रायः अनादि बाबू के यहाँ फिर खिलखिलाने लगी। उसने कहा-बाहर क्यों चले जाया करते थे। बात यह थी कि उनका लड़का अनिल गये सन्तोष बाबू ? . सन्तोषकुमार को किसी प्रकार छोड़ता ही नहीं था। इससे सन्तोषकुमार ने कहा-हाथ धोऊँगा। यह सुनकर उस परिवार के साथ उनकी घनिष्ठता क्रमशः बढ़ती सुषमा और भी ज़ोर से हँसी। उसके हँसने की आवाज़ जाती थी। सुनकर अनादि बाबू ने कहा-क्या बात है सुषमा ? __अनादि बाबू की स्त्री मनोरमा सन्तोषकुमार को पुत्र इतना क्यों हँस रही है ? से भी अधिक प्यार किया करती थीं। उन्होंने अपने लड़के सुषमा ने कहा-देखिए न बाबू जी, हाथ धोने के अनिल से सुना था कि सन्तोष की माता नहीं हैं । इसलिए लिए सन्तोष बाबू कमरे से बाहर जाकर खड़े हुए हैं । उनके प्रति उनकी ममता और अधिक बढ़ गई थी। तब अनादि बाबू ने कहा-बाहर क्यों चले गये हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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