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________________ एकाङ्की नाटक HIG fin श्री पात्रगण लोटा गोविन्द वल्लभ पन्त । १ - सेठ लम्बोदर के दर्शन करना मुझे हगिज़ मंजूर नहीं है । चिलम नाराज़ हो जाय तो हुआ करे, कलबुल न रिसाय । या पहुँचे [सिर हिलाकर ] हाँ ! आ पहुँचे । [ फागुन जाता है। सेट लम्बोदर जल से भरा लोटा २- मालिनी, उनकी धर्मपत्नी ३ - फागुन उनका छोकरा नौकर [तीसरे दृश्य में इनके अतिरिक्त वैद्य जी, ज्योतिषी जी, लिये आते हैं और उसे सिरहाने की ओर रख देते हैं ।] हकीम जी, डाक्टर साहब और श्रोझा जी ।] लम्बोदर - रात को सोते वक्त एक लोटा जल अगर सिर स्थान - सेठ जी के सोने का कमरा । समय - एक रात और उसकी सुबह । प्रथम दृश्य मानू सेठ लम्बोदर जी का शयन कक्ष । बीच में द्वार, दोनों ओर दो पलँग । रात दस बजे । उनका नौकर फागुन उनकी चिलम हाथ में लिये फूँक मार मारकर सुलगा रहा 1 नेपथ्य में खुले पंप और सेठ जी के कुल्ला करने की आवाज़ें ।] फागुन [ चिलम में फूँक मारकर ] - फू ! फू ! फू ! मेरे स्वामी श्रीमान् सेठ लम्बोदर जी का यह बड़ा ज़बर्दस्त हुक्म है कि उनके खा-पीकर हाथ धोने के बाद उनको उनका हुक्का गुड़गुड़ाता और धुवाँ छोड़ता हुआ मिले । फू ! फू ! फू ! जिस दिन उन्हें ज़रा भी राह देखनी पड़ी कि ग़रीब फागुन की बिना न्योते शामत ग्राई । [चिलम से दम खींचकर धुवाँ बाहर करता है ।] हूँऊँऊँ, अब सुलग गया है। उधर सेठ जी ने भी अच्छी तरह छिड़क-खाँसकर जूठे हाथ धो लिये हैं । [चिलम हुक्के पर रख देता है ।] श्रीमती मालिनी'देवी जी ने मेरे लिए खाना परोस दिया होगा । व चल देना चाहिए। देर करने से खाना ठंडा और लाल हो जायँगी । उनकी बल खाई हुई भौंहों ३२४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat गाई हाने रख दिया जाय तो सुबह उठकर दिशा-मैदान जाने में सुभीता होता है । [ खूँटी पर से अँगोछा निकालकर हाथ पोछता है और कुछ विचार कर एक दीर्घ श्वास छोड़ता है । ] ग्रह ! दस हज़ार ग्यारह सौ निन्नानवे रुपये पौने सोलह श्राने तीन पाई मेरे बाहर फँसे हैं । मैं, अकेली दम, दूकान में डंडी तोलूँ. या इन नादेदों की बैठक की ज़ंजीर झनझनाऊँ ! मेरे नौकर फागुन को श्रीमती जी के चूल्हे चौके से ही फ़ुर्सत नहीं [कोट की जेब में हाथ डालता है, पर जेब फटी होने के सबब हाथ बाहर निकल ता है ।] फूटी और फटी तक़दीर ! [ माथे पर हाथ मारता है । मेरी स्त्री मालिनी भी इसे सीना नहीं चाहती । [कोट खोलकर खूँटी पर टाँग देता है । ] कम्बख़्त उधार के खानेवाले ! [क्रुद्ध होकर घूँसा तानता है ।] अब मेरी दूकान का रास्ता ही भुलाये बैठे हैं । [ हथेली में घूँसा मारकर ] नालिश कर दूँगा जी नालिश ! [बिस्तर की ओर बढ़कर लिहाफ़ खींचता है, अचानक सिर पर हाथ रखकर मालूम करता है कि अभी टोपी नहीं उतारी है । उसी समय उसकी दृष्टि उस जल के भरे लोटे पर जाती है। सिर से टोपी उतारकर उससे लोटा ढँक देता है। लेटकर लिहाफ़ प्रोढ़ लेता है और हुक्क्ने की नली हाथ में लेकर गुड़गुड़ाना आरम्भ करता है । ] www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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