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________________ सख्या ४] झांस का देहाती जीवन का दुश्मन हो गया है। वह सभी को बुरी और हिकारत मैनेजर को स्खुश कर लें। मस्ती का इससे जबर्दस्त की दृष्टि से देखता है। उनमें यह भाव भरने का श्रेय उदाहरण दुनिया के किसी कोने में नहीं मिलता। फ्रांस बहुत अंशों में कम्यूनिस्ट-विचारों को है। इन विचारों के के समाचार-पत्र मज़ाक से भरे रहते हैं । फरासीसी अश्लील उन्मूलन में फ्रांस की राष्ट्रीय सरकार काफ़ी शक्ति खर्च से अश्लील बात को ऐसे ढङ्ग से कहते हैं कि सुननेवाले कर रही है: फ्रांस के ऊपर भी 'अशान्ति का ख़तरा' को ज़रा.भी मद्दा नहीं मालूम देता।। मँडरा रहा है । भविष्य ही जाने आगे क्या होगा! . फरासीसी फुटबॉल बहुत पसन्द करते हैं । फुटबाल के फ़रासीसी बड़े ज़िन्दा दिल होते हैं। मज़ान उनके अलावा वे बाउल नाम का एक खेल खेलते हैं । यह खेल व्यक्तित्व का अावश्यकीय भाग है। हाजिरजबाबी, दोअथें देहातों में बहुत प्रचलित है। फ्रांस में लोगों का झुकाव शब्द और कहावतें वे बहुत पसन्द करते हैं । शब्दों की गायन और वाद्य की ओर बहुत है। यही कारण है कि चुस्ती और कहावतों की भरमार उनका जातीय गुण है। फ्रांस अाज ललित-कला का केन्द्र बना हुआ है। प्रत्येक मसखरापन तो उन्हें इतना भला मालम होता है कि अच्छे फरासीसी चित्रकारी और गायन की ओर स्वभावतः अाकर्षित मज़ाक के लिए मयखाने का नौकर आपको एक ग्लास होता है। शराब उड़ेल देगा। किसी भी होटल में आप शामिल कर फ्रांस का देहाती जीवन ऐसा हो अादर्श जीवन है। लिये जायेंगे, यदि आप एक चुभता मज़ाक करके होटल के : हे कवे ! लेखक, श्रीयुत हरशरण शर्मा 'शिवि' कला का चित्रण किया था हृदय-रस निज लेखनी से, हे कवे ! तुमने प्रथम। ढाल कर दानी बने, भावना ले भक्त की, विश्व को संदेश देकर तुम कवे ! ज्ञानी बने। मानस रचा तुमने महिम ।। चल रहे हो ध्वान्त-जग में एक नव आलोक लेकर। भारती का जापकर तुम सरस औ' चेतन बने। सत्य, सुन्दर और शिव के राजते हो ओक बनकर ॥ प्रेम के उन्माद में तुम सजल-कवि-लोचन बने। लोक-सेवा-भाव में, विरहिणी की हूक में तुम ओज के अवतार हो। तुम कूक कोयल से उठे, कला की अभिव्यंजना में, कल्पना सुकुमार हो। करुण-रस बरसा धरा पर रसों की अनुभूति में तुम हुए आत्मविभोर हो। गरज जब धन से उठे। काव्य की आराधना में, कर रहे तप घोर हो। सुन सके हो पीर उर की चातकों की याचना में। कलित-कविता-लता पर तुम भावना के फूल हो। गा सके हो गान मंजुल मातृ-भू-पद-वन्दना में ॥ प्रेम की मन्दाकिनी के तुम मनोरम कूल हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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