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________________ संख्या ४] खूनी लोटा __ - ३२५ नेपथ्य में बर्तन मलने की आवाज़ । सेठ जी हुक्का मालिनी-न बतावेगा? तो मैं भी घर का कोना-कोना. गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते सो जाते हैं । मालिनी काग़ज़ की एक .... छान डालूंगी और एक-एक बिन्दी मिटाकर ही चैन पुड़िया लेकर आती है।] लूँगी। मालिनी-हैं ! इनकी गुड़गुड़ी तो सिल के पत्थर की तरह फागुन-मार डालोगी- ग़रीब को इस तरह मार डालोगी ? . चुप हो गई । श्रीमान् जी सो गये क्या ? [धीरे से आवाज़ लम्बोदर शोर मुनकर जाग पड़ता है और उठ कर । देकर] अरे श्रो फागुन ! जब तू यहाँ अावे तब एक मालिनी को फटकारता है । फागुन खिसक जाता है।] लोटे में जल भरके लाना। [पुड़िया भूमि पर रखकर लम्बोदर-अरी ! बारह बज चुके हैं ! तुझे कुछ होश वहीं बैठ जाती है ।] हा भगवान् ! हाथ पीले न होते भी है ? सारी दुनिया सो गई, पर तेरी कढ़ाई अभी न सही, किसी अँगुली में भी तो सोने का एक छल्ला तक नहीं उतरी है। तुझे सोकर नाक बजाने के लिए नहीं है । मैं इसी इच्छा को लेकर बूढ़ी हो जाऊँगी, सारा दिन पड़ा हुआ है, पर मुझ कम्बख़्त को तो सुबह पर इन्हें क्या ? इनका छिन जायगा, छीज जायगा, पाँच बजे दूकान खोलनी है। पर बेचारी मालिनीदेवी को कानी कौड़ी भी न मिलेगी। मालिनी-तो एहसान किस पर है? बिना सोचे-समझे [धोती से हाथ पोंछते हुए फागुन आता है ।] यों ही फन फैला देते हो। तुम्हारी ही दूकान में फागुन-और यह ग़रीब फागुन भी सदा अपनी तनख्वाह 'सतिया' और 'श्रीगणेशाय नमः' लिखने के लिए यह के लिए तरसता ही रह जायगा। [पुड़िया हाथ में लेकर] गेरू कूट-छानकर अब भिगाने मालिनी---क्यों फागुन ! तुझे याद है, तेरी कितने महीने डाल रह __की तनख्वाह हमारे सिर चढ़ी है ? लम्बोदर [शीघ्र नरम पड़कर]-अच्छा , यह बात है ! तो.. फागुन-~जो सरकार : तुम्हारे भुलाये से कभी भूल. नहीं करो, तुम्हारा जो जी चाहे वही करो। सकता । फागुन भी अब बहुत दिन से शहर में रहने मालिनी [मुह बनाकर क्रुद्ध हो जाती है] - जो जी चाहे . के सबब हद से ज्यादा होशियार हो चला है। उसे वही करो ! हूँ, ज़रा भी तो समझ नहीं है। पंप के नीचे घड़ा भरते और बिजली की रोशनी में लम्बोदर [प्रेमपूर्वक]--तो नाराज़ क्यों हो गई ? [मालिनी बतन मलते बरसों बीत गये हैं। का हाथ पकड़ना चाहता है।] मालिनी--पर तू तो कहता था मुझे गिनती ही नहीं मालिनी हाथ छुड़ाकर]-रहने दो अपनी चतुराई । मैं ग्राती है। नहीं बोलती। [मह फिरा लेती है।] कुछ भी तो "फागुन--गिनती नहीं आती है तो क्या यों ही बाज़ार से आदमियत नहीं है। तुम्हारा सौदा ख़रीद लाता हूँ। कहो, क्या तुम्हें कभी लम्बोदर [उसके मह की ओर जाकर]-यों ही हँसते-खेलते कोई पाई कम मिली। ......अजी, मैं अपनी अँगु- नाराज़ हो जाती हो । भला यह भी कोई बात है ? लियों पर प्रासमान के तारे भी गिन दूंगा। तनख्वाह [कुछ देर खुशामद कर उसे मनाता है, जब वह नहीं याद करना क्या बड़ी बात है ? मानती तो खुद भी रूढ जाता है।] अच्छा तो हो मालिनी--किस तरह ? मुझे न बतायेगा क्या ? गया क्या ? [मालिनी मह फेरे चुप ही रहती है ।] फागुन--नहीं सरकार ! हूँ, फिर वही बात ! स्वामी को अपने घर में कोई मालिनी--अरे ! मैं ढिढोरा पीटने थोड़े जा रही हूँ। जगह ही नहीं ! मालिनी ! तुझे बनाने में ब्रह्मा जी ने फागुन -[धीरे से अजी, मैं एक जगह बिन्दी बना देता माधुरी इतनी अधिक नहीं मिलाई, जितनी ज़्यादा हूँ। एक महीना बीता नहीं कि मैं उसमें एक मिर्च । देख लूँगा, मैं भी तेरे गुस्से को देख लूँगा। बिन्दी और बढ़ा देता हूँ। [ज़मीन पर पैर पटककर लिहाफ़ अोढ़ लेता है । हुक्के मालिनी--वह जगह है कहाँ ? में से एक-दो दम खींचता है। जब धुवाँ नहीं आता फागुन–जगह ?...है कहीं, तुमसे मतलब ? तब नली दूरकर मुंह ढंक सो जाता है ।] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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