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सरस्वती
मालिनी - नाराज़ हो गये तो क्या ? धमकायें किसी और को । मालिनी के गुस्से के लिए भी फ़ायर- एंजिन 1 चाहिए । [फागुनद्वार में से ह निकालकर धीरे-धीरे आता है ।] फागुन [लम्बोदर की ओर इशारा कर धीरे-धीरे मालिनी से ] जी ! सो गये ?
मालिनी - कम्बख्त बड़ा लापरवाह है ! मैंने तुझसे क्या करने को कहा था ? फागुन- एक लोटे में पानीमालिनी - तो लाया तू ?
- लाया
फागुन- ( लम्बोदर के रक्खे हुए लोटे को देखकर ]सरकार ! लाया । [तुरन्त ही लम्बोदर की टोपी उठा चारपाई के नीचे फेंक जल का लोटा उठाकर मालिनी को दे देता है । ]
मालिनी - जा, एक लोटा और ले था । फागुन -- भी लो, ठीक ऐसा ही लो। [ जाता है । ]
[ मालिनी पुड़िया उठाकर हाथ में लेती है। फागुन आकर वैसा ही एक दूसरा लोटा मालिनी के सामने रखता है । मालिनी उसमें पुड़िया का गेरू रख उसे पहले लोटे के पानी से भर देती है, और उसे उठाकर ठीक उसी जगह रख देती है, जहाँ लम्बोदर ने अपना लोटा रक्खा था ।]
फागुन- अच्छा सरकार, अब तो कोई और काम नहीं है ? मालिनी - ठहर, [दूसरे लोटे के शेप जल से अपने हाथ धोकर, ख़ाली लोटा फागुन को देती है ।] ले, इसे जहाँ से लाया है वहीं रख देना ।
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[ भाग ३८
द्वितीय दृश्य
[ वही कमरा, दूसरी सुबह । ]
फागुन [नेपथ्य में दरवाज़े की सॉकल झनझनाकर]-- अजी, सूरज सिर पर ा गया। नींद न खुलेगी
क्या ?
मालिनी [चौंककर जागती है, आँखे मलकर चारपाई पर से उठती है, सॉकल खोलती है । फागुन प्रवेश करता है । मालिनी बाएँ हाथ से उसका कान पकड़ती है और दाहने हाथ से सोये हुए लम्बोदर ar दिखाकर तर्जनी होंठों पर रखकर फागुन से चुप रहने को कहती है । ] चुप !
फागुन [मुँह बिगाड़कर दोनों हाथों से दियासलाई घिसने
फागुन- बहुत अच्छा । [ लोटा लेकर जाता है ।]
[ मालिनी दरवाजा बन्द कर साँकल चढ़ा देती है। और क्रोध-भरी निगाह से पति की ओर देखती है, फिर उस भाव को धीरे-धीरे प्रेम में बदल देती है और खूँटी पर से लम्बोदर का कोट उतार लेती है ।] मालिनी - कई बार इन्होंने इस फटी जेब को सी देने के
लिए कहा था । श्राज इसे इस वक्त सी दूँगी तो सुबह इस जेब में हाथ डालते ही सेठ जी का सारा गुस्सा हवा हो जायगा । [सुई-तागा निकाल सीना शुरू करती है ।]
का इशारा करता है और चिलम की ओर सङ्केत करता है । ] — ॐ !
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मालिनी [दवे पैर लम्बोदर के सिरहाने जाकर वहाँ से कौशल - पूर्वक दियासलाई की डिबिया निकालकर -- ले फागुन को देती है । ] [फागुन का हुक्का उठा लेना । दोनों का जाना । लम्बोदर जी का स्वप्न देखते-देखते लिहाफ सहित चारपाई पर से नीचे गिरना और चौंककर खड़ा होना | ] लम्बोदर - अरे बाप रे ! क्या देखा ? स्वर्ग की परियों ने हवाई जहाज़ में सितारों के पास तक पहुँचाकर मुझे चूसी हुई गुठली और फटे हुए जूते की तरह फेंक दिया ! यह तो ख़ैर हुई कि जो कुछ मैंने देखा वह एक स्वान था और जहाँ मैं गिरा वह मेरे ही कमरे का फ़र्श, मगर आज सुबह - सुबह यह बोहनी अच्छी नहीं हुई। दिन भर के राम ही मालिक हैं । हे भगवान् !
रक्षा करना । [ अत्यन्त भक्ति भाव से हाथ जोड़ता है । ] फागुन [हुक्का लिये आकर समवेदना - पूर्वक ] -क्या हुआ
सरकार !
लम्बोदर [ बेखटके ] - हुआ क्या ? कुछ भी नहीं । अभी
सोकर उठे हैं। भर लाया तम्बाकू ? रख दे । [ जल्दी से लिहाफ़ झाड़कर चारपाई पर रख देता है और बैठकर गुड़गुड़ाने लगता है । ]
फागुन- क्यों सरकार ! रात खटमलों के डर से ज़मीन ही पर सोये क्या ?
लम्बोदर -- श्ररे खटमलों का क्या डर ? लम्बोदर साक्षात्
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