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________________ संख्या ३] कलयुग नहीं करयुग है यह ! २२३ सुरजनमल पर नशा-सा छा गया। समझे, परीक्षा और इसके बाद तुम्हें अपना फैसला सुनायें। और मेरा समाप्त हो गई। इतने में दीनानाथ ने दूसरा सवाल कर फैसला यह है कि मैं तुम्हारे साथ कदापि ब्याह नहीं कर दिया- "इन्होंने कुछ गाना भी सीखा है ?" सकती।" सुरजनमल-"जी हाँ।" सुरजनमल दीनानाथ को नीचा दिखाना चाहते थे, दीनानाथ-"तो कहिए, कुछ सुना दें।" मगर उनमें यह साहस न था। उषादेवी के वीर-भाव को सुरजनमल का खून खोलने लगा, मगर कुछ कर न देखकर उनका हृदय-कमल खिल उठा। ब्याह न होगा सकते थे। क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी गये और ठंडी तो क्या होगा, दुनिया क्या कहेगी और वे उसका क्या आह भरकर बेटी से बोले—“कुछ सुना दो ।" जवाब देंगे? इस समय इनमें एक बात भी उनके सामने __ और दूसरे क्षण में उषा की अंगुलियाँ बाजा बजा रही न थी। उनके सामने केवल एक बात थी। जिसने मेरा थीं, उसकी ताने कमरे में गूंज रही थीं और दीनानाथ अपमान किया है, मेरी बेटी ने उसके मुंह पर तमाचा ख़ुशी और अचरज से झूम रहा था। मगर सुरजनमल मार दिया। इसने मेरा बदला ले लिया। यह भी क्या अान्तरिक वेदना से मरे जा रहे थे, बाहर उनकी महमान याद करेगा? स्त्रियाँ उनकी निर्लज्जता पर खुश हो होकर अफ़सोस कर दीनानाथ पानी पानी हुअा जा रहा था। मगर चुप रही थीं और कलजुग को गालियाँ दे रही थीं। रहने से शर्म घटती न थी, बढ़ती थी। वह खिसियाना __ संगीत की समाप्ति पर दीनानाथ ने सिगरेट-केस से होकर बोला-"अापने तो मुझे परीक्षा के बिना ही फ़ेल सिगरेट निकाला और उसे सुलगाने के लिए दियासलाई कर दिया।" जलाते हुए बोला-'वान्डरफ़ल (अाश्चर्यजनक) " ___उषादेवी ने और भी ज़ोर से कहा- “मुझे तुम्हारी - सुरजनमल ने उपेक्षा-भाव से कहा-“कोई और बात परीक्षा करने की आवश्यकता ही क्या है ? मैं इतना पूछनी हो तो वह भी पूछ लो।" ___ समझ गई हूँ कि मेरे और तुम्हारे विचार इस दुनिया में उषादेवी का मह लाज से लाल हो गया और कान कभी न मिलेंगे। मैं सोलहों आने हिन्दुस्तानी हूँ, तुम जलने लगे। सोलहों आने विदेशी हो । मैं ब्याह को अात्मिक सम्बन्ध दीनानाथ ने सिगरेट सुलगाकर दियासलाई को हाथ मानती हूँ, जो मौत के बाद भी नहीं टूटता। तुम्हारे के झटके से बुझाते हए जवाब दिया-.-"और कोई बात समीप मेरा सबसे बड़ा गण ही यह है कि मेरा रंग साफ़ नहीं। मुझे लड़की पसन्द है।" है और मेरे गले में लोच है। लेकिन कल को यदि मुझे सुरजनमल की जान में जान आई। चेचक निकल आये या किसी अन्य रोग से मेरा गला ख़राब हो जाय तो तुम्हारी आँखें मुझे देखना भी स्वीकार एकाएक उषादेवी अपनी कुर्सी से उठकर खड़ी हो न करेंगी। तुम कहते हो, मैंने तुम्हारी परीक्षा नहीं की, गई और दीनानाथ की तरफ़ देखकर धीरे से मगर निश्च- मैं कहती हूँ, मैंने तुम्हें दो बातों से तोल लिया है। यात्मक रूप में बोली--"मगर मुझे तुम पसन्द नहीं हो।" जिसकी पसन्द ऐसी अोली और कच्ची बुनियादों पर खड़ी ___ दीनानाथ के लिए एक-एक शब्द बन्दूक की एक-एक हो उसका क्या विश्वास ? तुममें किताबी योग्यता होगी, गोली से कम न था। मुँह का सिगरेट मुँह में ही रह गया। मगर तुममें मनुष्यत्व नहीं है । मेरे बाबू जी आज से तुम्हारे मगर पूर्व इसके कि वह कुछ बोले या सुरजनमल कुछ भी सम्बन्धी थे । तुमने इसकी ज़रा परवा नहीं की। उनके कहें, उषा ने फिर से कहना शुरू कर दिया -- दिल पर छुरियाँ चल रही थीं और तुम अपनी जीत पर "अगर तुम लड़कों को यह अधिकार है कि ब्याह से फूले न समाते थे। तुम्हें केवल अपना ख़याल है। दूसरे पहले लड़की को देखो, उसकी परीक्षा करो और इसके का अपमान होता है तो हुआ करे। ज़रा सोचो, अगर बाद अपना फैसला सुनायो तो हम लड़कियों को भी यह यही सुलूक मैं तुम्हारे पिता जी के साथ करती तो तुम्हारा अधिकार प्राप्त होना चाहिए कि तुम्हें देखें, तुम्हें परखें, क्या हाल होता ? आँखों से आग बरसने लगती, लहू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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