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________________ २२४ सरस्वती [भाग ३८ खौलने लगता, अजब नहीं मुझे घर से निकालने पर भी बाहर निकला तब ज़मीन-आसमान घूम रहे थे, और उतारू हो जाते। ऐसे स्वार्थी, अन्याय-प्रिय, तंग-दिल दुनिया में कहीं भी प्रकाश न था। पुरुष के साथ जो स्त्री अपना जीवन बाँध ले उससे बड़ी अंधी कौन होगी ?" यह कहते कहते उषा बाहर निकल गई। मगर मा को बेटी की इस बेहयाई पर ज़हर चढ़ दीनानाथ का ज़रा-सा मुँह निकल आया । सोचता था, गया । रोती हुई उसके कमरे में जाकर बोली-“तूने मेरी क्या करूँ, क्या कहूँ। उषादेवी की न्याय-संगत और नाक काट डाली । मैं कहीं मह दिखाने लायक नहीं रही। युक्ति-पूर्ण बातों का उसके पास कोई जवाब न था। चुप- लड़के ने दो बातें पूछ ली तो कौन-सा अन्धेर हो गया ? चाप अपने पाँव की तरफ़ देखता था और अपनी अदूर- जवाब देती और चली आती। अब जब बरात लौट दर्शिता पर पछताता था। मगर अब पछताने से कुछ जायगी और घर-घर में हमारी बातें होने लगेंगी तब हमारे बनता न था। उधर सुरजनमल की आँखें जीत की कुल का नाम रोशन हो जायगा ! जिस लड़की की बरात रोशनी से जगमगा रही थीं। वे सोचते थे, ऐसे नालायक़ लौट जाय उस लड़की का मर जाना भला ।" के साथ जितनी भी हो, कम है। अब बच्चा जी को शिक्षा उषा दीवार के साथ लगी खड़ी थी, मगर कुछ मिल जायगी। वे दुनिया और दुनिया की ज़बान से बहुत बोलती न थी। चुपचाप मा की तरफ देखती थी और डरते थे, मगर इस समय उन्हें इसका ज़रा भी भय न था। सिर झुकाकर रह जाती थी। कुछ देर पहले दीनानाथ का रोष उनके लिए दैवी प्रकोप इतने में सुरजनमल ने आकर उषा को गले से लगा था, इस समय उन्हें उसकी ज़रा भी परवा न थी। श्राज लिया और जमना की तरफ़ अग्नि-पूर्ण दृष्टि से देखकर उनके सामने आत्म-सम्मान और निर्भयता का नया रस्ता बोले-“खबरदार ! अगर मेरी बेटी से किसी ने कुछ खुल गया था, आज उनकी दुनिया बदल गई थी, आज कहा तो। इसने वही किया है, जो नये युग की वीर पुराने जुग ने नये जुग में आँखें खोल ली थीं। कन्याओं को करना चाहिए, और जो करने का हममें सुरजनमल उठ कर धीरे-धीरे दीनानाथ के पास सामर्थ्य नहीं। मगर हम उसकी प्रशंसा भी न कर सकें गये और मुँह बनाकर बोले-"मुझे बड़ा अफ़सोस है, तो यह डूब मरने की बात होगी। बाकी रह गया सवाल मगर मैं कुछ कर नहीं सकता। जब लड़की ही न माने तो इसके ब्याह का । इसकी मुझे ज़रा भी चिन्ता नहीं। मेरी कोई क्या करे ?" बेटी के लिए वर बहुत मिल जायेंगे। अच्छे से अच्छा दीनानाथ की रही-सही अाशा भी जाती रही। समझ लड़का चुनूँगा।" गया, जो होना था, हो चुका। थोड़ी देर बाद जब वह यह कहते कहते उन्होंने उषा का माथा चूम लिया। अन्तीत (महाकवि शेक्सपियर की एक कविता) ___ अनुवादक, श्रीयुत 'द्विरेफ' हटा ले अब ये चिर मृदु हास लिये थे विरति-शपथ के श्वास । पर फिर मेरे प्रिय अन्तरतम, उषालोक सम चञ्चल चितवन, ले आ ले आ। नव प्रभात की प्रवंचना बन । अमर प्रेम के दिव्य कुसुम जो वृथा छिपे हैं, वृथा छिपे हैं ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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