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उसने बहुत जल्दी दस्तख़त करना सीख लिया। वह स्टेशन के कुलियों और गाँव के पटवारी से बखूबी बहस कर सकता है । हरखू को वह मार मारकर स्कूल भेजता है और शाम को गाय चराता है।
गाँव में माधो की एक छोटी-सी धे के हिस्सेदार अधीनसिंह भी हैं। माधा से कोई चूँ नहीं करता । गुदरी का रहा है, क्योंकि माधो लेन-देन भी करने लगा है, मगर
दूकान है, जिसमें ठाकुर के ख़ौफ़ से कारोबार बिगड़
सरस्वती
( १ )
मादक,
कैसे इस तम में तुम जाओगे प्रियतम ? बीती रजनी न अभी ममता की निर्मम ! यह निशीथ का समीर : चंचल, अधीर ! पुलकाकुल जीवन वन स्वप्नों से अनुपम ! कैसे इस तम में तुम जानोगे प्रियतम ? ( २ ) शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला; निष्फल ही होगी क्या अश्रु-मुकुत्त-माला ? कोमल वय, काल खींचो मत, हो न दूर!
कर;
युग-तन से तृष्णा का यह दुकूल काला ! शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला !
मोह - निशा
श्री सीप्रसाद सिंह
ग़रीबों को लूटने के लिए नहीं बल्कि उनकी मदद के लिए। किसी को वह व्यर्थ के लिए रुपया नहीं देता । वह ज़बर्दस्ती वसूल कर लेता है, मगर सूद नहीं बढ़ने देता । उसके असामी आलसी और सुस्त नहीं होते । जिसकी जितनी चौकात है, उसे उतना ही क़र्ज़ मिलता है । अधीनसिंह उसके क़ानूनी सलाहकार हैं । वह उनसे कभी दबता नहीं, मगर उनको खुश रखना अपना कर्तव्य समझता है ।
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(५)
छोड़ो हठ ! शेष
अभी रात्रि प्रीति-भाजन;
होने दो ऊषा का मंगल - नीराजन !
[ भाग ३८
( ३ )
खोलो मत वातायन; अन्धकार - माया ! होगा गृह- दीपक भी लुप्त--शून्य छाया ! रजनी यह म्लान-मुखी; जिसमें चिर- अज्ञ सुखो ! बन्धन से हीन करो तुम न प्रारण काया; खोजो मत वातायन अन्धकार - माया ! ( ४ )
पूर्व
उता विवेक का न एक तारा; माया में खोया-सा सोया जग सारा ! विशिथिल श्वास- सुरभि, चपल हास !
कर
बाहुपाश,
तोड़ोगे किस प्रकार मोह- तिमिर-कारा ? पूर्व में उगा विवेक का न एक तारा !
तरु-तरु पर कूजन नत्र;
गृह-गृह में, पूजन-रव ! चिर-दिन पर आये इस घर में तुम साजन ! छोह छोड़ो हठ, शेष अभी रात्रि प्रीति-भाजन;
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