SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ उसने बहुत जल्दी दस्तख़त करना सीख लिया। वह स्टेशन के कुलियों और गाँव के पटवारी से बखूबी बहस कर सकता है । हरखू को वह मार मारकर स्कूल भेजता है और शाम को गाय चराता है। गाँव में माधो की एक छोटी-सी धे के हिस्सेदार अधीनसिंह भी हैं। माधा से कोई चूँ नहीं करता । गुदरी का रहा है, क्योंकि माधो लेन-देन भी करने लगा है, मगर दूकान है, जिसमें ठाकुर के ख़ौफ़ से कारोबार बिगड़ सरस्वती ( १ ) मादक, कैसे इस तम में तुम जाओगे प्रियतम ? बीती रजनी न अभी ममता की निर्मम ! यह निशीथ का समीर : चंचल, अधीर ! पुलकाकुल जीवन वन स्वप्नों से अनुपम ! कैसे इस तम में तुम जानोगे प्रियतम ? ( २ ) शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला; निष्फल ही होगी क्या अश्रु-मुकुत्त-माला ? कोमल वय, काल खींचो मत, हो न दूर! कर; युग-तन से तृष्णा का यह दुकूल काला ! शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला ! मोह - निशा श्री सीप्रसाद सिंह ग़रीबों को लूटने के लिए नहीं बल्कि उनकी मदद के लिए। किसी को वह व्यर्थ के लिए रुपया नहीं देता । वह ज़बर्दस्ती वसूल कर लेता है, मगर सूद नहीं बढ़ने देता । उसके असामी आलसी और सुस्त नहीं होते । जिसकी जितनी चौकात है, उसे उतना ही क़र्ज़ मिलता है । अधीनसिंह उसके क़ानूनी सलाहकार हैं । वह उनसे कभी दबता नहीं, मगर उनको खुश रखना अपना कर्तव्य समझता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat (५) छोड़ो हठ ! शेष अभी रात्रि प्रीति-भाजन; होने दो ऊषा का मंगल - नीराजन ! [ भाग ३८ ( ३ ) खोलो मत वातायन; अन्धकार - माया ! होगा गृह- दीपक भी लुप्त--शून्य छाया ! रजनी यह म्लान-मुखी; जिसमें चिर- अज्ञ सुखो ! बन्धन से हीन करो तुम न प्रारण काया; खोजो मत वातायन अन्धकार - माया ! ( ४ ) पूर्व उता विवेक का न एक तारा; माया में खोया-सा सोया जग सारा ! विशिथिल श्वास- सुरभि, चपल हास ! कर बाहुपाश, तोड़ोगे किस प्रकार मोह- तिमिर-कारा ? पूर्व में उगा विवेक का न एक तारा ! तरु-तरु पर कूजन नत्र; गृह-गृह में, पूजन-रव ! चिर-दिन पर आये इस घर में तुम साजन ! छोह छोड़ो हठ, शेष अभी रात्रि प्रीति-भाजन; www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy