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सरस्वती
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[लोरेन्सो माविस (अफ्रीका) में भारत समाज द्वारा संचालित गुजराती पाठशाला के कुछ अध्यापक और विद्यार्थी ।] रह चुके हैं । इससे भी बढ़कर रङ्ग-द्वेष की एक और विचित्र बानगी लीजिए । डंडी में एक हवशी औरत ने एक अँगरेज़ गृहस्थ की कुछ मुशियाँ चुरा लीं और उन्हें एक भारतीय के हाथों बेच डाला। वह पकड़ी गई. मामला चला और उसे सज़ा मिली। यहाँ तक तो किसी को शिकायत नहीं, किन्तु ग्रागे मजिस्ट्रेट महोदय ने भारतीय खरीदार को ताकीद करते हुए फर्माया तुम्हें योरपीय और नेटिव की मुर्गी का ग्रन्तर जानना चाहिए था । तुम व्यापारी लोग उनसे अच्छी मुर्गियाँ खरीदकर नेटियों को चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देते हो। यहाँ तक रङ्ग-भेद का चिप फैल चुका है। आदमी अपने रङ्ग से पहचाने जा सकते हैं, लेकिन यह जान लेना कि अमुक मुग़ काले की है और अमुक गोरे की, कैसे सम्भव हो सकता है ? यहाँ की मुर्गियाँ भी काली गोरी जातियों में परिणत हो रही हैं। और डंडी के मजिस्ट्रेट गेई साहब के दिमाग़-शरीफ़ में तिजारती भारतीयों को इसकी पहचान होनी चाहिए। यह किसी पिछली सदी की बात नहीं है, बल्कि अक्टूबर १९३६ की घटना है। क्या रङ्गभेद की ऐसी मिसाल दुनिया में और कहीं मिल सकती है ?
[ भाग ३७
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प्रथा
गया है, और अब खुद वहाँ की
फ़ीजी का मामला और भी अनोखा है । जहाँ संसार में स्वेच्छाचारी शासनों का अन्त हो रहा है और जनतन्त्र की स्थापना हो रही है, वहाँ फ़िजी के सत्ताधिकारी अपनी निरङ्कुशता के बनाये रखने के लिए अठारहवीं सदी की ओर वापस जा रहे हैं। चौंकानेवाली बात तो यह है कि फ़ीजी ब्रिटेन की क्राउनकलोनी है और उसे दक्षिण अफ्रीका की भाँति स्वराज्य नहीं मिला है हाल में वहाँ म्युनिसिपलका अन्त किया सरकार शहरों की सफ़ाई की व्यवस्था किया करेगी। बेचारे नागरिक रेट और टैक्स' भरने के लिए मजबूर होंगे, लेकिन उसकी व्यय- व्यवस्था में उनको चूँ-चकार करने का हक़ नहीं रहेगा। यह भी आन्दोलन शुरू हुआ था और बड़े उग्ररूप से कि कौंसिल के लिए जो चुनाव-प्रथा है। उसकी भी अन्त्येष्टि हो जाय और सरकार द्वारा नामज़द किये गये लोग ही कौंसिलर हुआ करें । दुःख की बात तो यह है कि मौजूदा कौंसिल के श्री के० बी० सिंह और श्री मुदालियर नामक दो भारतीय मेम्बरों ने इस आन्दोलन का श्रीगणेश किया था, यद्यपि ये दोनों महाशय भारतीय मतदाताओं की ओर से चुने जाकर कौंसिल की कुर्सियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। सरकार की सहायता से कौंसिल में उनका प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया, किन्तु यह सौदा कुछ महँगा पड़ा, क्योंकि एक ओर तो भारतीयों ने घोर आन्दोलन आरम्भ कर दिया और दूसरी ओर योरपीयों का एक डेपुटेशन विलायत जा पहुँचा। भारत सरकार ने भी इस पीछे फिरो' नीति का विरोध किया। नतीजा यह हुग्रा कि औपनिवेशिक सचिव को हाल में 'एक घोषणा करनी
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