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प्रवासियों की परिस्थिति
लेखक, श्रीयुत भवानीदयाल संन्यासी
श्री स्वामी भवानीदयान जी प्रवासी भारतीयों की समस्या के विशेषज्ञ हैं। उनका यह लेख प्रामाणिक और विचारणीय है। इस लेख में उन्होंने प्राय: समस्त उपनिवेशों के प्रवासी
भारतीयों की वर्तमान दुर्वस्था का विहङ्गम दृष्टि से वर्णन किया है।
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1 स समय संसार के भिन्न भिन्न और उनके साथ वैसा ही व्यवहार भी होता है। महात्मा DAN देशों और उपनिवेशों में गांधी के सत्याग्रह और भारत सरकार के राजदूतों की वाणी
लगभग २५ लाख प्रवासी और नीति से भी उनकी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन भारतीयों की आबादी है। नहीं हो सका। आज भी भारतीयों के लिए ट्रेनों में अलग
जहाँ जहाँ वे बसे हुए हैं, डिब्बे और ट्रामों में अलग बैठकें हैं; डाकघरों, स्टेशनों विहाँ वहाँ उनको अपने देश और दफ्तरों में रङ्ग-भेद का नग्न-प्रदर्शन है। होटलों और
1 की पराधीनता के कारण थियेटरों के दरवाज़े उनके लिए. बन्द हैं। न उन्हें पार्लिअपमान का कड़ा प्याला पीना पड़ता है। पौन सदी यामेंटरी मताधिकार है और न म्युनिसिपल मताधिकार तक जारी रहनेवाली शर्तबन्दी-प्रथा का इतिहास वास्तव ही। कुलीगीरी के सिवा उन्हें और कोई सरकारी नौकरी में भारतीयों की अपकीर्ति का इतिहास है और उसमें नहीं मिल सकती। जो भाई खेती और रोज़गार करते हैं विशेषतः अन्यायों, अत्याचारों और अपमानों के ही अध्याय उनकी राह में इतने काँटे बिखेर दिये गये हैं जो पग पग मिलेंगे । यद्यपि अनेक सहृदय महानुभावों के उद्योग से पर चुभते हैं । राम और कृष्ण के वंशज एवं बुद्ध, ईसा, अब इस प्रथा का अन्त हो गया है, तो भी इससे उत्पन्न मुहम्मद, शङ्कर और दयानन्द के अनुयायी यहाँ असभ्य परिस्थिति की सीमा अभी तक अगोचर है। इतने आन्दो- हब्शियों से भी निम्न समझे जाते हैं। लनों और बलिदानों के बाद भी न तो प्रवासियों के सङ्कटों दक्षिणी अफ्रीका के श्वेताङ्गों के रङ्ग-द्वेष की कुछ का अन्त हुआ है और न उनकी अवस्था में आशाजनक बानगी देखिए । दक्षिण अफ्रीका की सहति के चारों अन्तर ही पड़ा है । मज़ा तो यह है कि ब्रिटिश साम्राज्य प्रान्त नेटाल, केप, आरेञ्ज फ्री स्टेट और ट्रांसवाल—में के अन्तर्गत उपनिवेशों में ही उन्हें सबसे अधिक धक्के केप अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु वहाँ के खाने और अपमान सहने पड़ते हैं। पिछली लखनऊ- राष्ट्रवादी श्वेताङ्गों की परिषद् ने हाल में ही जो प्रस्ताव कांग्रेस में राष्ट्रपति पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने प्रवासियों पास किया है वह यह है—“योरपीय क्रिश्चियन संस्कृति के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव उपस्थित किया था और जिसकी की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि योरपीयों और व्याख्या करने का भार मुझे सौंपा गया था, समय-सङ्कोच गैर-योरपीयों के मध्य में जहाँ तक बन पड़े, अन्तर रक्खा के कारण मैं उसकी व्याख्या भला क्या कर सकता था- जाय; उनका विवाह-सम्बन्ध कानून से जुर्म ठहराया केवल इधर-उधर की दो-चार बातें कहकर सन्तोष कर लेना जाय, गैर-योरपीय स्कूलों में अन्य वर्गों के साथ गौराङ्ग पडा था। उसी समय मैंने सरस्वती-सम्पादक को इस अध्यापक की नियुक्ति रोकी जाय, काई भी श्वेता किसी विषय पर कुछ लिखने का वचन दिया था, किन्तु बीमारी गैर-श्वेताङ्ग से नौकरी में नीचे के ओहदे पर न रक्खा
और कमज़ोरी के कारण आज से पहले मैं अपने वचन का जाय और गोरी स्त्रियाँ गैर-योरपीय के यहाँ नौकरी पालन नहीं कर सका।
करने से रोकी जायँ ।" यहाँ यह कह देना उचित होगा 'दक्षिण-अफ्रीका तो रङ्ग-द्वेष की दौड़ में सबसे आगे कि इस गौराग-दल के नेता हैं डाक्टर मलान, जो कुछ बढ़ गया है । यहाँ भारतीय 'कुली-कबाड़ी' समझे जाते हैं दिनों पहले तक यूनियन-सरकार के अन्तर्विभाग के मंत्री
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