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________________ । संख्या २] रंगून से आस्ट्रेलिया । १२७ फिरकर सायंकाल जहाज़ पर लौट आये। दूसरे दिन जहाज़ १२ तारीख की सुबह को जहाज फ्रीमेंटल पहुँच गया। दो बजे खुलता था । कुछ नया न होने की वजह से फिर शहर यह केवल बंदरगाह है। असली शहर पर्थ है, जो यहाँ से नहीं गये । बन्दरगाह में ही इधर-उधर घूमकर समय बिताया। करीब १२ मील दूर है। यहाँ से पर्थ का रेल और बसें अाठ तारीख़ की सुबह को जहाज़ अडेलेड आया। बराबर थोड़ी-थोड़ी देर पर छूटा करती हैं । हम और हमारे बन्दरगाह से शहर १२ मील दूर था। जाने के लिए अँगरेज मित्र दस बजे निकले । वस पर से ही जाना तय रेलगाड़ी थी । जहाज़ छः बजे शाम को खुलता था। साढ़े हुअा। फ़्रीमेंटल से पर्थ तक सड़क के दोनों बग़ल घर नौ बजे भोजन के उपरांत मुसाफिरों को शहर ले जाने के बने हुए हैं। पर्थ नदी के किनारे बसा हुआ है। यह लिए एक स्पेशल गाड़ी का इंतिज़ाम था। उस पर बैठकर पश्चिमी आस्ट्रेलिया-प्रांत की राजधानी है । कलगोरी हम लोग १० बजे शहर पहुँचे। इस शहर का बसे हुए जो इसी प्रांत में है, सोने की खान के लिए मशहूर १०० बरस हो गये हैं। उसकी शताब्दी मनाई जा रही है। शहर में कोई विशेषता नहीं मिली। भोजन कर किंग्सहै। बहुत-से मकान फूलों से सजाये मिले। इस शहर के - पार्क में हम लग गये। यहाँ की ऊँची जगह से शहर का बसाने की तारीफ़ है। एक तरफ़ सब सरकारी मकान, दृश्य अच्छा नजर आता है। इस बागीचे में कुछ भाग बाग़ीचे, विश्वविद्यालय इत्यादि हैं, दूसरे भाग में दूकानें स्वाभाविक छोड़ दिया गया है, जिससे आस्ट्रेलिया के ही दूकानें हैं। इसी तरह एक भाग में गोदाम हैं। सड़के जंगली प्रदेश का अागन्तुकों को भान हो सके । झाड़ियों सीधी और साफ़-सुथरी हैं। यहाँ बहुत कुछ देखने को और पेड़ों से जिनमें जंगली फूल कई किस्म के फूल रहे नहीं था। चार बजे की स्पेशल गाड़ी से जहाज पर वापिस थे, यह भाग बहुत मनोहर लगा। दो घंटे यहाँ बिताकर आ गये। जहाज पर वापस लौटे, जो ६ बजे शाम को कोलम्बो के ..अडेलेड के बाद दूसरा बन्दरगाह फ्रीमेंटल था। लिए रवाना हुआ। इस तरह आस्ट्रेलिया में मेरा चार १,३०० मील का सफ़र साढ़े तीन दिन में समाप्त हुआ। हफ्ते का सफ़र ख़त्म हुआ। 'पथिक' लेखक, श्रीयुत अनवारुलहक "अनवार" मत पूछो क्या मैंने मन में ठाना है। ___ कब हुए ख्याति के दास पथिक इस पथ के। जाने दो मुझको दूर बहुत जाना है। दुनिया नवीन है यकदम गुमनामों की। ।। मत कहो एक क्षण रुककर दम लेने को। गुमनामी का आनंद कोई क्या जाने । सुख-शान्ति इसी चलने ही में माना है। हो अगर जौहरी तो मणि को पहचाने । करते हो विचलित मुझे मार्ग से मेरे।। दुख मैंने किया न दूर अगर दुनिया का। .. लो अपनी अपनी राह रहो मत घेरे।। यदि केवल मैंने अपना ही हित ताका। मत करो प्रशंसा तुम मेरे कामों की। क्यों करूँ कामना सब मेरे गुण गावें। .. इच्छा न मुझे है आदर की दामों की। क्यों चाहूँ मैं फहराये कीर्ति-पताका । हो अथक मुझे दुखियों का दुख हरने दो। हाँ, सफल मुझे मानव-जीवन करने दो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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