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________________ श्रीमती लीलावती मुंशी गुजराती की प्रसिद्ध लेखिका हैं। यह कहानी आपने 'सरस्वती' के लिए लिखी है। इसका हिन्दी अनुवाद श्री काशिनाथ त्रिवेदी ने किया है। सदा कुँवारे टीकमलाल ! लेखिका, श्रीमती लीलावती मंशो (१) जो बड़ी चाची वर की मा बनी थीं वे गा उठीं। स्त्रियों PRIME ME जनगर की एक गली में स्त्रियों का का वह दल शकुन गाता हुआ चाची के पीछे चल पड़ा। RELA एक दल खड़ा था। स्त्रियाँ कुल- सहनाई बज उठी, ढोल ढमक उठा और सारी गली उस देवी की पूजा के लिए कुम्हार के सुर और उस नाद से गँज उठी। घर से मटके लाने का निकली थीं. गानेवालियों की आवाज़ दूर-और दूर होती चली So और जाने की तैयारी में थीं। गली गई। अड़ोसी-पड़ोसी अपने घरों में चले गये । कुत्ते दो-तीन के चौक में एक कुआँ था । कुएँ पर दफा गली के मोड़ तक जाकर भोक आये और फिर जहाँ एक स्त्री पानी खींच रही थी, और गली में खड़ी एक स्त्री के तहाँ अाकर ठहर गये। घर के ऊपरी मंज़िल के झूले पर से बातें कर रही थी। आस-पास घरों के चबूतरों पर कुछ बैठा टीकम, नई शादी के नवोल्लास में, भूले की सलाखों अधेड़ और कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ जानेवाली स्त्रियों को देखने के संगीत के साथ झूल रहा था। और उन्हें सलाह देने को खड़ी थीं। पास में एक 'परब' . यह टीकम ही इस उत्सव का नायक था। ताज़ा थी, जहाँ कुछ पंछी दाना चुग रहे थे और दो-तीन कुत्ते थे, लगा हुआ कुंकुम का टीका और चावल उसके माथे पर जो कभी घर में जाते थे, कभी बाहर आते थे और श्राकर सुशोभित थे। रेशमी कमीज़ और लाल किनारे की धोती भोंकने लगते थे। फत्तू इस घर का नौकर था, जो दमामियों से सजी हुई उसकी देह सुहावनी मालूम होती थी! अपने की मदद से इन कुत्तों को निकालने की कोशिश कर रहा था। दुबले-पतले हाथों में वह सोने के कड़े पहने था, और इतने में सामने से एक विधवा आई। जब उसने दूर अँगुली में मानिक की एक अँगूठी थी। पर इन सुहागिनों का यह दल देखा तब कतराकर दूर ही उसे देखते ही उसकी उमर का अन्दाज़ लगाना ज़रा दूर से यों निकल गई कि असगुन न हो। और अच्छे मुश्किल था। फिर भी तीस-बत्तीस से ज़्यादा उसकी उमर सगुन नहीं हो रहे थे, इसलिए स्त्रियों का दल जहाँ का तहाँ नहीं थी। उसके गाल पिचके हुए थे, आँखें चंचल, थमा हुअा था। यह देखकर एक बुढ़िया ने उलाहने-भरी कपाल असाधारण रूप से चौड़ा, और सिर पर कुछ सफ़ेद आवाज़ में कहा--"अरी सुनती हो ! अब की ज़रा अच्छे और कुछ काले बालों की खिचड़ी पकी थी। सगन लेकर जाना ताकि बेचारे का घर ठीक-से बसे । चार- सँवारे हए थे। बीड़ी की संगत से होंठ काले पड़ गये थे, चार दफ़ा दूल्हा बनकर भी बेचारा कारा ही रहा । भगवान् मगर इस समय उन पर पान की सुर्वी चढ़ी हुई थी। और करे, यह पाँचवीं दुलहिन देवी बनकर आये । बहनो! कानों में जो तीन बालियाँ वह पहने था उनसे उसके मुँह तब तक एक-आध गीत ही गायो। यों गूंगी-सी क्यों की शोभा बढ़ती या घटती थी, कहना कठिन है। आज रात को पाँचवीं बार उसका ब्याह होने जा रहा खड़ी हुई स्त्रियाँ आपस में एक-दूसरी से कहने लगी कि था। अभी एक महीना पहले ही जच्चा की हालत में तुम गाना शुरू करो। इतने में सामने से एक गाय आ उसकी चौथी पत्नी कमला का देहान्त हो गया था, इसलिए प्रदँची । इसे देखते ही दो-चार स्त्रियाँ एक साथ पुकार इस बार ब्याह में कोई ख़ास धूम-धाम करने का उसका को..... सगन ! सगन हा ! पूजा की थाली लिये इरादा न था। गणेशपूजा, गौरीपूजा, हवन और मंडप, खड़ी हो ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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