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________________ संख्या ६] कहानी का अन्त तक धातु का एक टुकड़ा भी पास में रहेगा।" वह फिर खेलने का प्रयास किया, पर दो-चार अतिरंजना भरे चित्रों जोश में आ गया "पहाड़ कौन-सा ठीक होगा?" को अंकित करने के अतिरिक्त कुछ न कर सकी। कभी "सोलन।" मैंने जवाब दिया और जेब से कलम मुझे वह जगतराम और उसकी नैसर्गिक प्रेमिका को फूलों और काग़ज़ निकाल कर नुसखा लिखने लगा। इतने में के अथाह सागर में जुगनुओं की झिलमिलाती ज्योति में बुढ़िया फिर बाहर आ गई । वह मुझसे कुछ पूछने के लिए एक-दूसरे से उलझते हुए दिखा देती। कभी चाँद की मुँह खोलने जा रही थी कि जगतराम बोल उठा-"मैंने चाँदनी में वे दोनों नदी के किनारे शिला-खण्ड पर बैठे सब बात समझ ली है। इन्हें अब अधिक कष्ट देने की हुए नदी की लहरों के गीत में अपने हृदय में उठती हुई कोई ज़रूरत नहीं।" प्रेम-हिलोरों के संगीत को छोड़ते हुए झलका देती और ___मैं अब तक नुसखा लिख चुका था। उसे जगतराम कभी बहियाँ में बहियाँ डालकर सूरज की किरणों पर पृथ्वी के हाथ में देकर मैं उठ खड़ा हुआ। और आकाश के मध्य में नृत्य करते हुए दृष्टि-गोचर करवा - "मैं परसों इसे पहाड़ पर ले जाऊँगा। क्या कल देती। फिर सहसा आकाश में बादल छा जाते, सूर्य छिप आप फिर अाने का कष्ट न उठायेंगे ?” मेरे कोट की जेब जाता, किरणें सिमट जातीं और बेचारा जगतराम लुढ़कता में नोटों का एक छोटा-सा पुलिन्दा डालते हुए जगतराम हुआ पृथ्वी पर आ गिरता। पर उसकी प्रेमिका एक इन्द्रने पूछा। धनुष के सहारे जो तब तक अाकाश में बन चुका होता . बहुत अच्छा ।” मैंने सीढ़ियाँ उतरते हुए जवाब था, अटकी रहती। इसके आगे कल्पना कहीं भी न दिया। मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी ? पहुँच पाती थी। इसलिए जब एक दिन मुझे सोलन से तार-द्वारा जगतराम का बुलावा आ पहुँचा तब मैंने फ़ौरन एक डाक्टर का अपने रोगियों के साथ वही निर्लेप वहाँ जाने का निश्चय कर लिया। यद्यपि यहाँ काम बहुत सम्बन्ध होता है जो कमल के पत्तों का जल से । जब तक था, फिर भी मैंने उसी दिन यात्रा की तैयारी कर दी। रोगी के पास रहते हैं तब तक सबसे निकट, पर रोगी-गृह शायद इस कवित्वमय वातावरण में जगतराम अपनी से बाहर निकलते ही उनके मस्तिष्क में उस ग़रीब के रोमांस' की कहानी उगल दे। लिए प्रायः ज़रा-सा स्थान भी नहीं रहता। आखिर इतने (५) से मस्तिष्क में संसार भर की चिन्तात्रों को कैसे बाँधे बल खाती, हाँफती, दम लेती और यात्रियों को धुएँ फिरें ? परन्तु मनोविज्ञान के इस प्रसिद्ध सिद्धान्त को भी से व्याकुल करती हुई बच्चा-गाड़ी-सी वह रेलगाड़ी सोलन' अब की बार मुँह की खानी पड़ी। आज जगतराम और की ओर बढ़ी जा रही थी और मुझे लिये जा रही थी उन उसके नन्हें रोगी को पहाड़ पर गये एक मास के दुःखियों की विचित्र टोली में। दोनों ओर क्षितिज तक करीब हो चुका था, पर न मुझे उस बालक की वह फैले हुए पर्वत और घाटियाँ अपने मध्य में से गुज़रते हुए दुःख-भरी मुसकान भूली थी और न उस बुढ़िया की उस मानविक खिलौने को देखकर मुस्कराते-से प्रतीत होते चमकती हुई तड़फनेवाली अाँखें । पर मुझे सबसे अधिक थे। चारों ओर लगे हुए चीड़ के वृक्ष और कहीं कहीं से परेशान कर रहे थे जगतराम और अतीत के आँचल में सिर निकालते हुए जंगली पुष्पों के झुण्ड हवा के झोकों छिपी हुई उसकी प्रेम-कहानी। पता नहीं, वह कैसा अद्भुत के द्वारा भूम रहे थे । बादलों के श्वेत और श्याम टुकड़े प्रेम था, उसमें क्या जादू था। न मालूम मदन ने उन वृक्षों और फूलों के साथ टकराते हुए एक-दूसरे से किस रस से सने शरों से उन दोनों के हृदयों को बेधा उलझ रहे थे । कितनी मस्ती और अानन्द था उनकी था कि अाज माया-जाल का पुतला जगतराम भी उलझन में ! कहाँ वह प्रकृति का हृदय-हारी सुन्दर और इतना उग्र आदर्शवादी बन बैठा था। बात यहाँ पीड़ा-रहित जगत और कहाँ मनुष्य का दुःखों और तक बढ़ गई थी कि दोपहरी की तन्द्रा की आड़ में मेरी वेदनाओं से भरा संसार, जिसके कोने कोने में निराशा और कल्पना ने कई बार उस बीते हुए प्रेम-नाटक को चिन्ता घुसी बैठी है, जहाँ प्रसन्नता की आड़ में सदा कष्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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