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________________ धारावाहिक उपन्यास C000 5 000000000000000000000000000000000000000000000000000 55555555-७६६६६६६६ESSIS555555555SSSSSSSSSSSSS MEROERI शनि की दशा 3000 ५ ८७७७७७७७७७७७च्च ७७७७७७७ ७७७७७७ळeopoewwwwwwwwwwwwww अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालन-पोषण हा था। किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषत: मामा की अनुपस्थिति में । एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, वह मामी से तिरस्कृत होकर अपने पडोस के दत्त-पारवार में शाश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना-चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त-परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने उसे अपनी पुत्र-वधू बनाने का विचार किया। अन्त में यथासमय अपने इस विचार को उन्होंने कार्यरूप में भी परिणत कर दिया। परन्तु राधामाधव बाबू के पुत्र सन्तोषकुमार की अासक्ति सुषुमा नामक कलकत्ते के एक बैरिस्टर की कन्या के प्रति थी. अतएव इस विवाह से उसे बड़ी विरक्ति हुई और उसने यह स्थिर कर लिया कि मैं इस स्त्री से किसी प्रकार का सम्पर्क न रक्तूंगा । फलतः विवाह के बाद हो वह कलकत्ते चला आया। सातवाँ परिच्छेद निर्जन कारागार में उसने अपने आपको कैद कर लिया। मित्र का समाचार इससे उसे बहुत कुछ शान्ति मिली। सन्तोष को कलकत्ता पाये प्रायः एक अव सन्तोष रात-दिन बेकार ही बैठा रहता। इससे SPROUD मास हो गया। इस एक मास में भी उसकी तबीअत बहुत घबराती। किसी तरह समय हो वह कालेज भी नहीं गया, घूमने नहीं व्यतीत होता था। अब वह यह समझने लगा कि के लिए भी नहीं निकला। वह यदि मैं इसी प्रकार और कुछ दिनों तक रहा ता शीघ्र ही सदा ही घर के भीतर बैठा रहता। पागल हो जाऊँगा। परन्तु वह करता क्या ? कोई उपाय किसी के आने पर वह ठीक ठीक तो था नहीं ! उसका मन उसे वहीं कैद कर रखना मिलता भी नहीं था, बातचीत भी नहीं किया करता था। चाहता था । बाहर का कोलाहल उसे श्रमह्य मालूम धीरे धीरे इस प्रकार के व्यवहार से उसके सभी मित्र उससे पड़ता था। न जाने कैसी एक प्रकार की व्याकुलता, असन्तुष्ट हो गये। उन लोगों ने करीब-करीब उसके पास एक प्रकार की अतृप्ति, एक प्रकार की वेदना मानो आना-जाना भी बन्द कर दिया। इससे सन्तोष को प्रसन्नता सदा ही उसके हृदय को दग्ध करती रहती थी, मन हो हुई है। उसने सोचा कि चलो, झंझट दूर हुया। में एक प्रकार की खिन्नता उत्पन्न किये रहती थी, हृदय भीड़-भाड़ और कोलाहल से अपने को अलग रख कर उस मानो वेदना से अवसन्न हो उठता था, उसे कुछ भी अच्छा २८१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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