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________________ ३८२ सरस्वती [भाग ३८ नहीं लगता था, किसी भी बात से उसे शान्ति नहीं कहने लगा-कहो भाई सन्तोष, बोलते क्यों नहीं हो ? मिलती थी। गाँव से कब आये ? - सन्तोष रह रह कर यही बात सोचा करता था कि यदि कुछ देर के बाद कम्पित कण्ठ से सन्तोष ने कहाकभी सुषमा या उसके परिवार के लोगों से मुलाकात हो मुझे पाये प्रायः तीन मास हो गये।। गई. तो उनसे क्या कहूँगा। मैंने अवश्य ही नितान्त सन्तोष को यह बात सुनते ही कुछ अाश्चर्य में अनिच्छा से यह विवाह किया है, परन्तु क्या वे लोग इस आकर अनिल ने कहा-तुम्हें आये इतने दिन हो गये ! बात पर विश्वास कर सकेंगे ? या यह सब विवरण बतलाने मुझे तो कुछ मालूम ही नहीं हो सका। मेरे यहाँ क्यों नहीं से ही उन लोगों को क्या लाभ होगा? कभी कभी सन्तोष श्राये भाई ? यह भी सोचता था कि सुषमा वास्तव में मुझे प्यार करती सन्तोष उस समय बड़ी चिन्ता में पड़ गया था। थी या नहीं, मैंने उसके सम्बन्ध में भूल से तो यह बह सोचने लगा कि कौन-सा कारण बतलाऊँ। धारणा नहीं बना ली है। वह कोई भी ऐसा उपाय नहीं सोच सका, जिसके द्वारा धीरे धीरे सन्ध्या का अन्धकार कलकत्ता महानगरी यह बतलाता कि तुम लोगों के साथ मेरे सारे सम्बन्धों को अाच्छादित कर रहा था। चारों ओर अगणित दीप- का ही अन्न हो गया है, वहाँ जाने का मार्ग मैंने अपने शिखायें प्रज्वलित हो उठीं। उस समय सन्तोष के मन में आप ही रुद्ध कर दिया है, क्या मुँह लेकर मैं तुम्हारे द्वार यह बात आई कि ज़रा-सा इधर-उधर घूम पाऊँ तो सम्भव पर फिर जाऊँ? है कि चिन्तायें बहुत कुछ कम हो जायँ। यह सोचकर सन्तोष को निरुत्तर देखकर अनिल ने व्यथित कण्ठ सन्ध्या के अन्धकार में वह घूमने के लिए निकला। से कहा-तेरी यह दशा कैसी हो गई है भाई ? तेरे विवाह कुछ समय तक इधर-उधर घूमने-फिरने के बाद का समाचार पाकर हम लोग कितने प्रसन्न हुए थे । सेोचा सन्तोष हेदुअा तालाब के पास आया। यहाँ आने पर था कि तू हम लोगों को पत्र अवश्य लिखेगा। परन्तु भाई, उसने अत्यधिक क्लान्ति का अनुभव किया। इससे वह वहीं तुमने खबर तक न दी। यह क्यों भाई ? क्या तुम हम बैठ गया, सोचा कि ज़रा-सा विश्राम कर लूँ। वहाँ लोगों से नाराज़ हो ? बैठते ही अतीत की कितनी मधुमय स्मृतियाँ उदित होकर सन्तोष ने दृढ कण्ठ से कहा-क्या वह भी विवाह उसे अान्दालित करने लगी। चार मास पहले वह सुषमा जैसा विवाह था, जिसके लिए सबको सूचना देता ? पिता को लेकर उसके भाई के साथ प्रायः यहाँ घूमने पाया की अाज्ञा टाल नहीं सका, इससे विवाह कर लिया है । करता था। उस समय पूण अानन्द के साथ उसके दिन वह तो वास्तविक विवाह नहीं है। व्यतीत हो रहे थे। हाय ! कहाँ वह दिन और कहाँ अाज अनिल ने संशयपूण स्वर से पूछा-यह क्या? यह की दुर्दशा का दिन ! कितना अन्तर था ! यदि वह कैसी बात कहते हो भाई ? इस तरह की बात क्या तुम्हारे समय फिर लाटा सकता! अतीत की स्मृतियों ने चारों मँह से शोभा देती है ? विवाह भी कभी झट-मठ हो ओर से घेरकर मानो उसे ज़ोर से पकड़ लिया। असह्य सकता है ? यन्त्रणा के मारे उसका दम-सा घुटने लगा, इतने में पीछे “सम्भव है कि मेरा यह कथन दूसरों के सम्बन्ध में से कोई बोल उठाये क्या सन्तोष बाबू हैं ? कब ग़लत हो, किनु मेरे सम्बन्ध में तो ठीक ही है।" श्राये भाई ? “यह तुम पागलपन कर रहे हो सन्तोष।" सन्तोष ने जैसे ही मस्तक उठाकर देखा, अनिल असहिष्णु भाव से सन्ताप ने कहा-अनिल, यह खड़ा था। उसे देखते ही विस्मय के मारे वह स्तम्भित- पागलपन नहीं है। यह मेरे मन की पक्को बात है। सा हो उठा। दु:ख के आवेग के कारण उसके मुँह से बड़ी देर तक चुप रहकर अनिल ने कहा-क्या बात नहीं निकल रही थी। हुआ है सन्तोष ? बतलाते क्यों नहीं? इस तरह की बाते अनिल ने सन्तोष के कन्धे पर हाथ रख दिया। वह क्यों कर रहे हो ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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