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क्या आधुनिक स्त्रियाँ स्वरन्या हैं ?
श्री निराला जी की कविता
गत फरवरी मास की 'सरस्वती' में साहित्यरत्न प्रिय महोदय,
श्री शिवनारायण भारद्वाज नरेन्द्र' नामक एक सज्जन की इस मास की 'सरस्वती' में श्रीयुत सन्तराम जी का
एक छोटी टिप्पणी निकली है जिसमें उन्होंने जनवरी की 'क्या आधुनिक स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं ?' नामक लेख पढा।
'सरस्वती' के मुखपृष्ठ पर छपी 'निराला' जी की 'सम्राट इस लेख में बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो न्यायसंगत नहीं
अष्टम एडवर्ड के प्रति' शीर्षक कविता पर अपने विचार हैं। जो स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी के पद पर सुशोभित होती हैं
प्रकट किये हैं। उनके प्रश्नों के उत्तर में मेरा निवेदन हैउन्हें वासना की दासी कहना कितना न्यायसंगत है. यह
उस कविता से सबसाधारण का ज्ञान-वर्धन हो या न प्रत्येक पाठक सोच सकता है।
हो, पर 'सरस्वती' के पाठकों का अवश्य होगा जिनके __ लेखक का कहना है कि भारत का पुरुष-समाज परा
लिए वह लिखी गई है। स्मरण रहे कि 'सरस्वती' के धीन है, इसलिए स्त्रियों की स्वतन्त्रता का प्रश्न ही नहीं
पाठकों का स्टैंडर्ड' ऊचा है । फिरपैदा होता। याद अाप दूसरे को कैद में रखकर अपनी
मानव मानव से नहीं भिन्न, पराधीनता की बेड़ी को काटकर सुखी होना चाहते है तो
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा, क्या इसमें आपके हृदय की संकीणता की गन्ध नहीं है ?
वह नहीं क्लिन्न . दूसरी बात यापने स्त्रियों की शिक्षा के विरुद्ध कही ।
ऐसा सत्य सिद्धान्त जिसमें हो वह कविता अनुपयोगी कैसे है। वह भी न्यायसगत नहीं है । अाज जो बुराइयाँ आपका
* हो सकती है ? क्या नज़र श्रा रही है, क्या वे सब सह-शिक्षा के परिणाम
भेद कर पङ्क हैं ? यह कभी नहीं। अापका शिक्षा का श्रादर्श ही ग़लत
निकलता कमल जो मानव का है। क्या वे सब उच्छ खलतायें जो अन्य विश्वविद्यालयों में
वह निष्कलङ्क, उपस्थित हैं, ग्राप शान्ति-निकेतन जैसी सुप्रसिद्ध सस्था से .
__ हो कोई सर । थाशा कर सकते हैं ? वेचारी स्त्रियाँ शिक्षा का अन्य साधन से हमारा ज्ञानवर्द्धन सम्भव नहीं है? न पाकर ही तो आपके विश्व वद्यालयों पर धावा बोलती
काव्य-दृष्टि से प्रसाद का इसमें स्थान हो या न हो, हैं । इसमें भला इन लोगों का क्या दोष है ? श्राप लिखत पर माधर्य का अवश्य है। मझे तो ऐसा प्रतीत होता है हैं कि हमारे विश्वविद्यालय अाज सूखी, सड़ी, वडोल तथा कि यह कविता माधुर्य से पूर्णतः अोतप्रोत है। चश्माधारिणी तरुण स्त्रियों से भरते जा रहे हैं। अब मैं
सामयिक साहित्य साक्षर जनता को सहज सुलभ ज्ञानपूछना हूँ कि अापके युवक-सम्प्रदाय जो कॉलेजों में पुस्तक
प्रदायक हो तो निस्सन्देह बहुत अच्छी बात होगी। किन्तु के पन्न चाट रहे हैं, किस योग्य होकर वहाँ से निकलेंगे ?
१०४ पृष्ठों के सामयिक साहित्य में यदि दो-चार पृष्ठ क्या चश्माधारी युवक श्रापको विश्वविद्यालय में नहीं
क्लिष्ट सा हत्य के हों तो इससे हमारे साहित्य की कदापि मिलते हैं ?
हानि नहीं हो सकती. बल्कि इससे उसकी शोभा वृद्धि ही
होगी। प्रत्येक भाषा के लिए लिष्ट साहित्य किसी न किसी श्यामबिहारीसिंह, नालान्दा कालेज,
अंश में आवश्यक होता ही है। पटना
योगेन्द्र मिश्र, मुजफ्फरपुर
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