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जान जारिश के
जाग्रत नारिया
गांधीयुग की स्त्री
लेखक, श्रीमती राजकुमारी मिश्रा
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जन्दू-संस्कृति ने प्रारम्भ से ही
जीवन के लिए एक आदर्श
रक्खा है। इतना होते हुए भी - वह सिर्फ़ आदर्श के स्वीकार में
ही गौरव नहीं मानती है, और बाप उसके विन्दु की तरफ़ जीवन
स्वाभाविक रीति से चलता जाय, इसलिए विवेक-बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि का उपयोग करके नियम बनाकर उन्हें समाज में प्रचलित कर दिया है। चाहे जैसी उच्च भावना हो उसके विशाल जनसमुदाय में जाने पर और वहाँ अधिक काल तक ऊपर रहने पर भी उसमें विकृति का आ जाना अनिवार्य है। आर्यसंस्कृति की महद भावनायें इसी से विकृत हुई हैं।
बहुत अर्से के बाद यहाँ भी पाश्चात्य संस्कृति की । 'व्यक्ति स्वतन्त्रता' की घोषणा सुनाई दी। इस शब्द के
आस-पास कैसी भावनाओं के शोभन भाव चित्रित हए होंगे? श्रीमती इरावती मेहता-ये इलाहाबाद के कमिश्नर किसे पता है ? किन्तु यहाँ तो 'व्यक्ति-स्वातन्या का श्री वी० एन० मेहता, जो बीकानेर के दीवान होकर गये 'सामाजिक उत्तरदायित्व का नाश' ऐसा ही अर्थ किया है, की पत्नी हैं और आज-कल बच्चों की मृत्यु की समस्या जाता है। वर्षों से अन्धकार में पड़ा हुआ और मृत्यु की को छान-बीन में लगी हैं।] निर्बलता से विरूप बना हुअा समाज 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' इस 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' की आकांक्षा ने अनेक जीवनकी घोषणा को अपनाने के लिए उठा या यों कहिए कि स्पर्शी विषयों को देखने की प्रेरणा की है। इतना ही नहीं, समाज का एक अङ्ग जागा।
गहरे असन्तोष की चिनगारी प्रकट करके-स्त्री-पुरुष को
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