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संख्या ३]
आत्म-चरित
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जिसका दृष्टि-कोण होगा उसको उसी ढंग का साहित्य पसन्द हैं वह अच्छी तरह कह डालें। किसी लेखक का सर्वोत्तम होगा और उसी से उसका मनोरंजन होगा। 'मनोरंजन' गुण यह है कि वह ऐसी भाषा का प्रयोग करे कि सुनने या उन शब्दों में से एक है जिसका अर्थ प्रत्येक मनुष्य अपने पढ़नेवालों के लिए यह असम्भव हो जाय कि वह सिवा इच्छानुकूल समझता है । यदि एक चीज़ एक को मनोरंजक उन अर्थों के कोई और अर्थ न लगा सकें जो लिखनेवाले मालूम होती है तो उसी से दूसरे का कोई मनोरंजन नहीं या बोलनेवाले के हैं। मनुष्य के छोटे से छोटे काम में होता। आत्मचरित का क्या दोष है ? यह सम्भव है कि भी उसकी आत्मा की झलक दिखाई देती है और वही उसके लिखने में योग्यता से काम न लिया गया हो, महत्त्व- झलक आत्मचरित का आधार है और उसी से चरितपूर्ण घटनायें छुट गई हों, मामूली बातों का सविस्तर वर्णन नायक का भी पता चलता है। बहुत आदमियों को यदि हो गया हो, स्वाभाविकता का अभाव हो या चरितनायक दिल खोलने का मौका दिया जाय तो मालूम होगा कि उस रंग में रंगा दिखलाई दे जो उसका प्राकृतिक रंग न बाहरी रुखाई के पर्दे के पीछे कितना कोमल हृदय है। हो । नहीं तो आत्मचरितों से पढ़नेवालों का बड़ा मनोरंजन उन अवसरों पर जब हम सावधान हैं तब भी हम में होता है । यह एक मसल मशहूर है कि जीवन एक नाटक स्वाभाविकता की कमी रहती है और उस समय के कामों है और इसकी सत्यता आत्मचरित पढ़ने से ही मालूम से भी हमारा पूरा पता नहीं चलता है । एक फ़ारसहोती है। जीवन के नाटक में कल्पना की आवश्यकता नहीं देशवासी अरबी-भाषा का इतना बड़ा विद्वान् था कि होती-केवल आवश्यकता होती है सीधे-सादे वर्णन पहचाना नहीं जा सकता था कि वह अन्य देश का रहनेकी, पर्दे खुद उठते और गिरते जाते हैं। उन लोगों की वाला है। वह अरब देश में गया और अपना ऐसा भेष भी संख्या कम नहीं है जिनका यह विचार है कि उन बनाया कि वहाँ के निवासी उसे अपने देश का समझने लोगों की अपेक्षा जो 'लक्ष्मी के पुत्र' कहलाते हैं, उनका लगे। बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखीं, अपनी शादी की और जीवनचरित अधिक शिक्षाप्रद और मनोरंजक होता है वहीं बस गया। उसकी पत्नी भी विदुषी थी। उसे न जिन्हें दुनिया का मुकाबिला करना पड़ा है। अच्छे दिन मालूम किस तरह यह सन्देह हुआ कि अरब देश उसकी बुराइयों को प्रकट कर देते हैं और बुरे दिन अच्छाइयों मातृभूमि नहीं है, परन्तु उसके सन्देह को परिपुष्टता नहीं को । मनुष्य चाहे जैसा हो-चाहे लक्ष्मी का पुत्र हो या प्राप्त होती थी। उसकी भाषा और वेष में कोई त्रुटि नहीं शत्रु हो, चाहे चरित्रवान् हो या महान् चरित्रभ्रष्ट हो, उसे थी। बहुत दिनों के बाद जब एक रात को वह सो रहा अपना आत्मचरित अवश्य लिखना चाहिए। सम्भव है था तब उसकी आँखों पर फतीले की रोशनी पड़ रही थी। कि जिस अनादर की दृष्टि से वह अाज देखा जा रहा है वह सोते हुए चिल्ला उठा कि फतीले का वध कर डालो, उस दृष्टि से वह कुछ समय के बाद न देखा जाय, यदि (यह शायद फ़ारसी मुहाविरा था--अरब देश में फतीला बुझा उसे अपने पक्ष में कुछ कहने का मौका मिले। इन सब दो कहा जाता था) उसकी स्त्री समझ गई कि उसकी मातृबातों के कहने का उचित स्थान आत्मचरित ही है। भाषा कौन है । पूछने पर उसने बतला भी दिया। वह उसका इससे क्या यह सम्भव नहीं है कि यदि उनकी भी सुन ली स्वाभाविक क्षण था जब उसके मुँह से उसकी मातृभाषा का जाती जिन पर दोषारोपण किये गये थे तो उनके विषय में मुहाविरा निकल गया। ऐसे ही मौकों पर यह पता लगता है हमारी राय में परिवर्तन हो जाता । निर्णय हम चाहे जो कि हम क्या हैं और ये अवसर इतने क्षणिक होते हैं कि करते, पर वह निर्णय अधिक ठीक होता।
हम उन्हें 'पकड़ नहीं पाते। इनकी आत्मचरितों में कमी अब यह प्रश्न सामने आता है कि स्वलिखित जीवन- होती है। जहाँ यह सत्य है कि बोज़वेल ने जान्सन के चरित का क्या ढंग हो। जैसे हर एक आदमी के बातें जीवनचरित में बहुत-सी अनावश्यक बातें लिखी हैं, वहाँ यह करने और अपने भावों को प्रकट करने का ढंग पृथक भी सत्य है कि बहुत-सी ऐसी बातें भी लिखी हैं जिनकी पृथक् होता है, वैसे ही श्रात्मचरित लिखने का भी होता वजह से वास्तविक जान्सन का फोटो आँखों के सामने आ है। उद्देश एक ही है और वह यह कि जो हम कहा चाहते जाता है। यदि जान्सन स्वयं लिखते तो वे बातें छट जातीं।
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