SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ .. सरस्वती [भाग ३८ अपना आत्मचरित लिखने में 'मधुर एकान्त' की है-अनुभव ही सच्चे शिक्षक हैं-चाहे वे सफलता के अत्यन्त आवश्यकता होती है। तभी उन कामों और परमोच्च शिखर के हों और चाहे अधमता की अथाह गहराई घटनात्रों का स्मरण आयेगा जिनके कहने या करने में के हों। दोनों से शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। यदि स्वाभाविकता के कारण सफलता या असफलता प्राप्त हुई इस देश के किसी बड़े से बड़े आदमी से भी कहा जाय थी। एक चरित्रभ्रष्टा अपनी जवानी के दिनों का स्मरण कि आप अपना आत्मचरित लिख दें तो शायद यही कहेगा करके गुनगुना रही है, "हज़ारों हो खाये हुए चोट थे, वह कि किया क्या है जिसका उल्लेख करूँ। इस संकोच से ठुमके से मिरज़ा तो बस लोट थे।" बस इन्हीं दस-पाँच कम से कम उसके देशवाले उसके अनुभवों से वञ्चित रह शब्दों में पूर्ण आत्मचरित लिख गया- पूरी तसवीर आँखों जाते हैं । अन्य देशों में नटियाँ और नर्तकियाँ भी अपना के सामने आ गई। व्यतीत समय का सिंहावलोकन ऐसे जीवन-चरित लिखती हैं या स्मरण-लेख रखती हैं। यद्यपि अवसरों पर बहुत काम देता है। परन्तु इसका ध्यान रहे उद्देश जेब गरम करने का होता है तो भी उनको अपने कि निरीक्षण और निर्णय करने में कृत्रिम रंग न आने विषय में जो कुछ कहना होता है वह तो कह ही पावे--केवल इतना प्रकट कर देना पर्याप्त होगा कि अमुक लेती हैं। विषय पर विचार क्या थे। तीसरा साधन आत्मचरित का पत्र है। इनके लिए आत्मचरित के लिखने के तीन तरीके हो सकते हैं, द्वितीय पुरुष' को आवश्यकता होती है। इनमें भी तभी और अभी तक यही तीन तरीके काम में लाये गये हैं- स्वाभाविकता अावेगी जब इनका अभिप्राय प्रकाशित करने (१) वही पुराना साधारण तरीका, जिसका 'श्रीगणेशाय का न हो । यद्यपि इनमें नित्यप्रति की घटनाओं का उल्लेख नमः' जन्म-तिथि बतलाकर होता है और 'इति श्री' नहीं होता है, तो भी इनसे अच्छी तरह और किसी ढंग दूसरे के हाथों-द्वारा अन्तिम बीमारी का वर्णन करके मृत्यु- से लेखक का मत प्रकट नहीं हो पाता। अँगरेज़ी-भाषा तिथि पर होती है। इसमें भी संशोधन हो रहा है । अब में सुप्रसिद्ध पत्र-लेखक हो गये हैं और सबसे बड़ा नाम केवल साल बतला दिया जाता है । अब कोई भी शायद चेस्टरफ़ील्ड का है । उन्होंने अपने पुत्र के नाम पत्र लिखे ही जीवनचरित हो जिसमें अन्तिम बीमारी का वर्णन हो। थे और उनमें अच्छे उपदेश दिये हैं। ये गुण होते हुए किसी को इससे क्या मतलब कि कौन-सी अन्तिम बीमारी भी वे वास्तव में पत्र नहीं हैं। वही नकल बहुतों ने की किसको हुई थी ? इतिहास के लिए साल जानना पर्याप्त है। है। एक ने तो अपने पुत्र को पत्र लिखने में लज्जा को दूसरा तरीका स्मरण-लेख है। यह प्रथम तरीके से तिलाञ्जलि देकर यह लिखा है कि उसका जीवन उसकी कुछ आसान है। इसमें स्वाभाविकता की अधिक सम्भा- स्त्री के साथ कैसा व्यतीत हुआ था। ऐसी पुस्तकें मृतजात वना है। इसमें दिनचर्या सीधी और सरल भाषा में लिखी शिशु के समान होती हैं । अस्तु, आज-कल उन्हीं जीवनहोती है। पेपी की डायरी कई भागों में प्रकाशित हुई है चरितों की धूम होती है जिनमें चरितनायक के स्मरण-लेखों और वह उनके पूर्ण जीवनचरित का काम देती है। उसमें और पत्रों से बातें जानकर लिखी जाती हैं। राजनैतिक बहुत-सी बाते यद्यपि असंगत-सी मालूम होती हैं, पर क्षेत्र में जो कुछ भी है उस सबके पत्र प्रकाशित होते हैं । अधिकांश में स्वाभाविकता अवश्य है। शायद उन्होंने यह वे भी वास्तव में पत्र नहीं हैं। उनके लिखने का यह निश्चय कर लिया था कि मामूली से मामूली बात का अभिप्राय होता है कि वे अपने मत का स्वतंत्रता से पक्षपात भी वे उल्लेख करेंगे। स्मरण-लेख यदि इस दृष्टि से लिखा कर सकें। तब भी वे पत्र ही कहला सकते हैं, चाहे लेखक गया है कि वह प्रकाशित किया जाय तो उसमें भी बहुत- के प्रतिबिम्ब न हों। उनके आधार पर जीवनचरित लिखा सी बातों पर कृत्रिम रंग होगा। स्वाभाविक ढंग तो वह जा सकता है। है जिस ढंग से मनुष्य कुछ सोचता है । चाहे कुछ लिखने एक और ढंग है, जिसके द्वारा मनुष्य असली रंग में में अत्युक्ति की झलक आ भी जाय तो भी अपने अनुभवों दिखलाई दे सकता है और वह है वार्तालाप का। इससे का उल्लेख करना चाहिए । अनुभवों से बड़ी शिक्षा मिलती मनुष्य के निजी और अदृष्ट जीवन पर से थोड़ा पर्दा हटाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy