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________________ २५० ___ सरस्वती [ भाग २८ था, सड़क पर काई सजीव वस्तु नहीं देख पड़ती थी, किसी ने उसके बाल काट दिये थे और उसका सिर उसके केवल मिर्जा की दूकान में कई एक बिल्लियों के गुर्राने मोटी और भारी देह पर एक अखरोट की भाँति दिखाई और गड़बड़ की आवाज़ पा रही थी। देता । दयालु पुरुष कभी कभी उसे कपड़े पहना दिया इस घटना के कुछ दिनों के बाद तक भी अक्सर करते, लेकिन कुछ ही घंटों के बाद वह फिर नंगी हो जाती मिर्जा की बीबी के दर्द से भरे गाने की आवाज़ आया थी। या तो कोई कपड़ों को उतार लेता या वह खुद उनको करती फाड़कर फेंक देती। उसके मुँह से हमेशा राल बहा करती "गई यक बयक जो हवा पलट और उसके हाथ अकड़े हुए रहते । वह प्रायः मटक मटकनहीं दिल को मेरे करार है।" कर सड़क पर नाचती, थिरकती और गंगों की तरह कुछ लेकिन फिर वह चुप रहने लगी और काम-काज में गुन गुन करती। जैसे ही वह मुहल्ले में पाती, लड़कों लग गई। का एक गोल उसके पीछे तालियाँ बजाता और पगली कह कहकर पत्थर फेंकता और मुँह चिढ़ाता। औरत “ऐं ऐं" मेरे मकान की ड्योड़ी में खजूर का एक पुराना पेड़ करती और कोनों में छिपती फिरती। जब कभी मिर्जा की था। एक ज़माने में उसमें फल लगा करते थे और शहद दूकान के सामने ये बातें होती तब मिर्जा लड़कों पर की मक्खियाँ खाने की खोज में नीचे उतर आती थीं। चीख़ता--"अबे सुसरो, तुम्हें मरना नहीं है। भागो यहाँ उसकी बड़ी बड़ी डालों पर प्रायः जानवर अाकर बैठते थे से, दूर हो ।” लेकिन थोड़ी ही देर के बाद लड़के फिर और भले-भटके कबूतर रात को बसेरा लिया करते । लेकिन इकट्ठे हो जाते। अब उसके पत्ते झड़ गये थे। डालियाँ गिर चुकी थीं, बड़े अादमी भी प्रायः उससे मज़ाक करते। वह और उसका तना काला और भयानक, रात के अँधेरे में बदसूरत ज़रूर थी, लेकिन उसकी उम्र ज्यादा न थी। उस बाँस की तरह खड़ा रहता जो खेतों में जानवरों को उसका पेट बढ़ा हुआ था और अक्सर मुन्नू जो खाते डराने के लिए गाड़ दिया जाता है। अब न उस पर पोते घराने का लड़का था, लेकिन अब बदमाशों से मिल जानवर मँडराते थे, न शहद की मक्खियाँ उस ओर पाती गया था, कहता. "क्यों? तेरे बच्चा कब होगा?" और थीं। हाँ, कभी कभी कोई कौवा उसके दूंठ पर बैठकर पगली एक दर्द-भरी, जानवरों की-सी आवाज़ निकालती काँव-काँव करता और अपना गला फाड़ता या कोई चील और अपने हाथ आगे बढ़ा के जो ढीले और लिजलिजे थोड़ी देर बैठकर चिलचिलाती और फिर उड़ जाती। रहते--किसी राहगीर या दूकानदार की अोर कर मुन्नू की सवेरे के बढ़ते हुए प्रकाश. में तना अाकाश में चमक अोर संकेत करती। उसकी उस भर्राई हुई आवाज़ में एक उठता, लेकिन सायंकाल को सूर्य के विश्राम करने के विनय होती, बेकस व बेबस व्यक्ति की वह प्रार्थना जो पश्चात् रात को बढती हुई अँधेरी में धीरे धीरे दृष्टि से वह अपने स्वामी या अपने से अधिक शक्तिशाली से श्रोझल हो जाता और रात में मिल जाता। रात को प्रायः करता है कि 'मुझे क्षमा करो और बचा लो'। लेकिन और घर आते समय मेरी दृष्टि उसके मोटे और भयानक तने लोग भी मज़ाक करने में मिल जाते और ज़ोर ज़ोर से पर पड़ती, फिर उसके साथ साथ उड़ती हुई आकाश पर कहक़हा लगाकर हँसते...। जाती। तारे चमकते हुए होते और ठीक उसके सिरे हिन्दुस्तान में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको सिवा खानेपर..............का अन्तिम तारा मुझको दिखाई देता, पीने और मर जाने के और किसी बात से मतलब नहीं। लेकिन वह तना मेरी दृष्टि और आसमान के बीच वे पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, कमाने लगते हैं, खाते-पीते हैं एक प्रकार से रुकावट डालता और मैं तारों के फैलाव को और मर जाते हैं । इसके सिवा उनको दुनिया को किसी न देख सकता। बात से कोई मतलब नहीं। आदमियत की गन्ध उनमें नहीं पाती। जीवन की महत्ता का उनको कोई शान मुहल्ले में प्रायः एक पागल औरत आया करती। नहीं। जिस प्रकार गुलाम को काम करने और मर रहने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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