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________________ संख्या ३] हमारी गली २४९ यहाँ तक कि उसमें से झाग निकलने लगता। फिर खपचे से दी और पूछा-'भाई, बड़ा अफ़सोस हुआ। क्या वाकया मलाई का टुकड़ा इस सावधानी से तोड़ता कि दूध हिलने हुआ ?" तक न पाता। उसकी बीबी अक्सर दूकान पर बैठा करती। मिर्जा की आँखों में एक भी आँसू बाकी न था, लेकिन वह बूढ़ी हो गई थी, उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई उसके सारे चहरे पर शोक अंकित था। "तक़दीर फूट थीं, उसकी कमर झुक गई थी और मुँह में एक दाँत बाकी गई, मेरा पला-पलाया लड़का जाता रहा।" यह कहकर न था। उसके ऊँचे डीलडौल और गोरे रङ्ग से मालूम मिर्ज़ा फिर घर की ओर चला गया । होता था कि वह किसी अच्छे घराने की औरत है। ख़रीदनेवाले जो खड़े थे, पूछने लगे--"क्या हुअा ?" लेकिन अब उसका काम-काज कम हो गया था, क्योंकि सिद्दीक़ ने झुककर देखा। उसी समय हवा का एक तेज़ बुढापे के कारण वे अब ज़्यादा मेहनत न कर सकते थे। झोंका अाया, गर्द और ग़बार उड़ने लगा। एक काग़ज़ उनका इकलौता बेटा मर चुका था और अब उनका हाथ का टुकड़ा हवा में उड़ा और कुछ दूर ऊपर जा उलटताबँटानेवाला कोई न था। असहयोग के दिनों में जब पुलटता नीचे की ओर गिरने लगा। मिर्जा के बाल हवा में आज़ादी के विचार देश में इधर से उधर हलचल मचाये उड़ रहे थे और वह गली में छिप-सा गया। हुए थे, मिर्जा का लड़का अपने साथियों के साथ जलूस "क्या हुआ ? असहयोग करने गया था, गोली लगी में गया था। “गांधी की जय” और “वन्दे मातरम्” के और मर गया। न जाने अपने काम में जी क्यों नहीं नारों से वातावरण गूंज रहा था। घंटाघर पर गोलियों लगाते ? सरकार के ख़िलाफ़ जाने का नतीजा यही है । की बौछार में बहुत-से आदमी काम आये और मिर्ज़ा तगड़ा जवान था। इन दोज़ख़ के चींटों और खद्दर-पोशो का बेटा भी मरनेवालों में था। बड़ी देर के बाद जब लाश का शिकार हो गया ।" यह कहते कहते सिद्दीक ने मटके के ले जाने पर कोई रोक न रही तब लोग मिर्जा के लड़के की मुँह में एक चमचा डाला। बहुत-से मटके दीवार में गड़े लाश को उसके घर लाये। हुए थे और कबूतरखाने की तरह देख पड़ते थे। चमचे से सारी दूकानें बन्द थीं। मुहल्ले में सन्नाटा छाया हुअा दाल निकालकर सिद्दीक़ ने गाहक की ओर बढ़ाई । ग्राहक था । जाड़ों की धूप ठंडी और बेजान-सी देख पड़ती थी। जो बेमना हो सिद्दीक़ की बातें सुन रहा था, दाल को नालियों में सफाई न होने के कारण उनमें सड़ान फूट रही अपने कपड़े में बाँधने लगा कि एकाएक उसे दाल देख थी। जब लाश घर आई तब मिर्जा और उसकी बीबी सन्न पड़ी और वह बोला--"वाह मियाँ बाश्शा, यह कौन-सी रह गये। उनको किसी तरह विश्वास न होता था कि दाल दे दिये हो ? मैंने तो अरहर की मांगी थी, ज़री फुर्ती उनका बेटा जो अभी अभी जिन्दा था, हँस-बोल रहा था, करो। मुझे देरी होरी है। बीबी बकैगी।" . जिसने सवेरे ही पेड़े बनाये थे, कढ़ाई माँजी थी, जो घर में मिर्जा की बीबी सिर देकर मार रही थी। बयान कपड़े पहनकर अपने किसी साथी से मिलने गया था, कर करके रोती थी, और अँगरेज़ों और गांधी को कोसती अब जिन्दा नहीं, बल्कि मर चुका है। वे बार-बार खून से थी। यामीन की माँ को जब इस घटना का समाचार मिला लथपथ लाश को देखते थे। मिर्जा की बीबी लाश से तब वह सान्त्वना देने के लिए आई। उसका जवान लिपटकर फूट-फूटकर रो रही थी। लोगों ने उसको अलग लड़का भी दीवार के नीचे दबकर मर गया था और वह करना चाहा, लेकिन वह एक मिनट के लिए भी लाश से अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को सिलाई करके पालती थी। अलग न होती थी। वह "हाय मेरे लाल, हाय मेरे लाल" दोनों गले मिलकर खूब रोई। और मिर्जा की बीबी को कह कहकर रोती थी, और कभी कभी उसके मुँह से ज़ोर तनिक धैर्य हुअा। आखिर लड़के को दफन करने ले की चीख निकल जाती थी। मिर्ज़ा पागलों की तरह, कभी गये। रात अँधेरी थी और बेबसी अँधेरे की तरह सारे में घर के अन्दर और कभी बाहर बौखलाया फिरता था। फैली हुई थी। हवा ठंडी थी और मुहल्ले में सील के सिद्दीक बनिये ने अपनी दूकान खोल ली थी। मिर्ज़ा जब कारण जाड़ा और भी मालूम होता था। लैम्पों की धीमी बाल बिखेरे हुए उधर होकर गया तब सिद्दीक ने आवाज़ रोशनी में मुहल्ला भयानक और डरावना मालूम हो रहा फा.६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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