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'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी'
लेखक, प्रोफेसर धर्मदेव शास्त्री
'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी' के सम्बन्ध में हम एक लेख गत अंक में छाप चुके हैं। उसी सिलसिले का यह दूसरा लेख है। लेखक महोदय ने इस प्रश्न का अपने इस लेख
__ में सुन्दर ढंग से विवेचन किया है।
REATEenaren रतीय साहित्य परिषद् के जन्म के अधिवेशन तक उनको 'हिन्दी' सीख लेनी चाहिए और Adhu साथ ही आज-कल राष्ट्र-भाषा के तब. कोई भी भाषण अँगरेज़ी में न हो। इस सम्बन्ध में -
लिए एक नये शब्द का प्रयोग उन्होंने अपने पत्र में एक प्रभाव-पूर्ण अग्रलेख भी लिखा 6 किया जाने लगा है, जिससे कुछ था, जिसका कांग्रेसवादियों पर प्रभाव पड़ा। इसी का
लोग घबरा उठे हैं, क्योंकि उन्होंने परिणाम है कि आज कांग्रेस के खुले अधिवेशन में हिन्दी'
आज तक इस शब्द को सुना ही में ही सभी मुख्य-मुख्य भाषण होते हैं । कांग्रेस-अधिवेशन नहीं था। वह शब्द है 'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी ।' अब के अवसर पर जो 'राष्ट्र-भाषा-सम्मेलन' आदि होते हैं उनमें तक राष्ट्र-भाषा के लिए 'हिन्दी' और 'हिन्दोस्तानी', इन भी इसी प्रकार के प्रस्ताव पास होते हैं। भारतीय साहित्यदोनों शब्दों का पृथक्-पृथक् भिन्न-भिन्न विचारकों की ओर से परिषद् के मन्त्री श्री काका साहब ने ही सर्वप्रथम प्रयोग होता रहा है। भारतीय साहित्य-परिषद् के ४ जुलाई हिन्दी को राष्ट्र-भाषा का रूप देने के लिए यह प्रयत्न १६३६ के कार्यकारी अधिवेशन में जो नियम-उद्देश प्रारम्भ किया कि समूचे राष्ट्र की सभी प्रान्तीय भाषाओं की अादि स्वीकृत हुए हैं उनमें एक स्थान पर लिखा है कि इस लिपि एक हो । इस सम्बन्ध में उन्होंने मुसलमानों से भी परिषद का सारा काम 'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी में होगा। विचार-विनिमय किया। परन्तु दुःख है कि वे मुसलमानों इसी प्रकार परिषद की ओर से प्रकाशित सदस्य के प्रतिज्ञा- को नागरी-लिपि स्वीकार करने के पक्ष में न कर सके। पत्र में भी सदस्य बननेवाले को जो प्रतिज्ञायें करनी यह बात उन्होंने कराची-कांग्रेस के अवसर पर होनेवाले होती हैं उनमें एक यह भी है कि मैं मानता हूँ कि 'भाषा राष्ट्र-भाषा-सम्मेलन के सभापति-पद से किये गये भाषण में की दृष्टि से यह एकता हिन्दी याने हिन्दोस्तानी-द्वारा ही स्पष्ट कर दी थी। उनका कहना था कि डाक्टर अन्सारी के दृढ़ हो सकती है।
समान राष्ट्रीय नेता भी उर्दू-लिपि को छोड़ने पर तैयार ___इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिन महानुभावों ने नहीं। शायद उसके बाद से उन्होंने इस प्रकार का विचार हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी ही छोड़ दिया है । अब तो उनका विचार है कि राष्ट्र-भाषा माना है और सर्वप्रथम उसे ऐसा रूप दिया है, आज वे तो एक होगी, जिसे हम 'हिन्दी' कहें अथवा 'हिन्दोस्तानी', ही हिन्दी याने हिन्दोस्तानी' के जन्मदाता हैं। पूज्य अर्थात हिन्दी याने हिन्दोस्तानी, परन्तु लिखी जायगं महात्मा गान्धी, बाबू राजेन्द्रप्रसाद, काका कालेलकर वह दो लिपियों में-फारसी-लिपि और नागरी-लिपि में। श्रादि महानुभावों ने हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाने में और एकमात्र ऐसा मानने का कारण यही है कि मुसलमान उसे कांग्रेस जैसी प्रभावशाली राष्ट्रीय महासभा-द्वारा व्यावहा- अपनी लिपि को छोड़ना नहीं चाहते। रिक रूप दिलाने में मुख्य कार्य किया है।
वास्तव में आदर्श का रूप विशुद्ध तो तभी तक है • मुझे स्मरण है, जब कराची-कांग्रेस के अवसर पर जब तक उसे व्यावहारिक रूप नहीं मिलता। आदर्श के
पूज्य गान्धी जी ने अ-हिन्दी-भाषी कांग्रेस-नेतानों और प्रति रूप में तो यह ठीक है कि राष्ट्र-भाषा जिस प्रकार एक हो, निधियों से जोरदार शब्दों में अपील की थी कि अगले उसी प्रकार उसकी लिपि भी अनेक न हों । परन्तु व्यवहार
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