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________________ ५४४ 'सरस्वती [भाग ३८ कलंकित किया है ! (क्रोध और आवेग का नाटय भी हूँ और तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा कि मैं पशुता करती है) की सतह से ऊपर भी उठ सकता हूँ-उठ रहा हूँ। (रेणुका होश में आकर सुषमा की ओर देखती है- रेणुका-(घृणा और क्रोध से) कैसा अच्छा मनुष्यत्व है ! फिर विनोद की ओर देखती है--फिर एकाएक उछल कर पाप की पहली सिद्धि को वह पशुत्व कह सकता है खड़ी हो जाती है) - और पाप की दूसरी सिद्धि को मनुष्यता । (क्षण भर रेणुका- तुम भी आगई सुघमा--मेरा अपमान करने के ठहर कर) अच्छा विनोद, ......(फिर कुछ सोच कर) - लिए ! खैर, अभी नहीं। अभी तो मुझे देखना है कि अंधी सुषमा-छिः! बहन, मैं तो तुम्हारे इस अपमान पर लज्जित . आँखें इस कलई को कब तक सोना समझती हैं । हूँ। और सबसे अधिक लज्जित हूँ इसलिए कि मैं अाह ! विनोद, तुमने मेरा तिरस्कार कर अच्छा ही भी आज एक स्त्री ही हूँ। किया। श्राशाओं का एक एक तिनका चुनकर मैंने रेणुका-स्त्री-स्त्री-स्त्री हूँ-(विनोद से) क्या देखते हो जो नीड़ बनाया था उसे तुमने एक ही फूंक में उड़ा विनोद ? इन्हीं आँखों से मुझे और सुषमा दोनों ही दिया। ठीक किया । (सुषमा की ओर देखकर) ' को एक साथ देख सकते हो ? एक ही दृष्टि में तुम मनुष्यता का तकाज़ा अब तुम्हारे साथ है, सुषमा । घृणा और प्रेम दोनों ही वहन कर सकते हो ? एक हो सकता है संसार में पुण्य भावनायें गंगाजल ही निगाह में मृत्यु और जीवन की झाँकी दिखा की तरह बह रही हों, यह भी हो सकता है कि पृथ्वी सकते हो ? पुरुष ! तुम्हारा पाप समाज में पुण्य के पर निर्मलता चाँदनी की तरह फैल रही हो और नाम से बिकता है तुम्हारी नारकीय वासनायें समाज कदाचित् प्रेम दुनिया की आँखों में बाल-सुलभ में कल्याण का प्रसार करती हैं। मोहकता बनकर झलक रहा हो-परन्तु मैं इन सबकी विनोद-वासना का प्रतिदान धिक्कार है और असंयम का अपवाद ही हूँ। इसी लिए विधाता ने मुझे निराश्रित पुरस्कार तिरस्कार है । रेनू, हम दोनों ही वासना के बनाया है, और मैं अभी इस अनंत आकाश में शिकार हैं, जिसे समाज दुर्बलता कहता है। पर मैं छोटी-सी बदली बनकर उड़ रही हूँ। पर मेरी यह मानता आया हूँ कि प्रेम का पहला उभार अत्यन्त इच्छा है कि मैं काली घटा बन कर वासना ही है। इस पृथ्वी पर उम. संसार का समस्त पुण्य मेरे पाप सुषमा-(आवेश में) तब तो तुम निरे पशु हो, क्योंकि पशु के आवरण से ढंक जाय। विकार ही जानते हैं और पशुओं का संयम उनकी (वेग के साथ बाहर चली जाती है । सुषमा उसके स्वाभाविक प्रवृत्ति है। पीछे 'रेनू रेनू' कहती हुई दौड़ती है। विनोद सिर नीचा विनोद (किञ्चित् क्षोभ से)-सुषमा, तुम कुछ न कहो। किये कुछ सोचता है) मैं पशु हूँ और पशुता कर सकता हूँ, किन्तु मैं मनुष्य (पर्दा गिरता है) POSE Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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