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________________ ४०२ सरस्वती [भाग ३८ - उसे उखाड़कर जब कोई उन्हें किसी दूसरे धम में ईमान है। अगर कोई जाकर उसे यह बतावे कि उसमें क्या-क्या लाने के लिए कहता है-चाहे वह धम गुणों में उतना सुधार और मरम्मत करनी है तो इसमें ज़रा भी आश्चर्य ही अच्छा और समान हो जितना कि उनके पूर्वजों का की बात नहीं कि वह उनका स्वागत भी करे । पर अगर धर्म था- तो मैं कहूँगा कि यह धर्म की विडम्बना है। काई उस मकान को ही गिराने लगे जिसमें वह और उसके यद्यपि सभी जगहों की जमीन में न्यूनाधिक परिमाण में पूर्वज पीढियों से रहते पाये हैं तो वह ज़रूर ऐसा करनेवही गुण प्रधान रहता है, तो भी हम जानते हैं कि एक वालों का प्रतिकार करेगा। हाँ, उसे खुद ही यह विश्वास ही प्रकार के बीज सब जगह समान रूप से नहीं फूलते हो जाय कि मरम्मतों से काम नहीं चलेगा, वह आदमी के फलते। मेरे पास कुछ उत्तम प्रकार के देवकपास के बीज रहने लायक ही नहीं रहा, तो बात दूसरी है। सो अगर हैं। बंगाल के कुछ हिस्सों में वे खूब अच्छी तरह लगते हिन्दू-धम के विषय में ईसाई-संसार का यही मत है. तो और फूलते-फलते हैं। पर बरोड़ा की ज़मीन में मीरा सर्वधर्म-परिषद् और अन्तर्राष्ट्रीय विश्वबन्धुत्व आदि सब बहन ने इन बीजों का जो प्रयोग किया उसमें उन्हें अभी निरर्थक बाते हैं। क्योंकि ये दोनों नाम समानता और तक सफलता नहीं मिली। पर इस पर से अगर कोई यह ममान उद्देशों को सूचित करते हैं। क्योंकि उच्च और नतीजा निकाले और उसका प्रतिपादन करने लगे कि नीच, बुद्धिमान् और अपढ़, गिरे हुए और नई ज़िन्दगी वरोड़ा की ज़मीन बंगाल की ज़मीन से हलकी है तो मैं की रोशनी पाये हुए, गरीब और उच्च कुल में पैदा होनेउससे सहमत नहीं हूँगा। पर मुझे एक भय है । यद्यपि वाले तथा सवर्णों और बहिष्कृतों का कभी समान उ श्राज-कल ईसाई मित्र अपने मह से तो यह नहीं कहते नहीं हो सकता। मेरी तुलना भले ही सदोष हो, शायद या स्वीकार नहीं करते कि हिन्दू-धम झूठा धम है, तो भी उसका उच्चारण भी अपमानजनक मालूम हो, मेरी ऐसा प्रतीत होता है कि उनके दिल में अब भी यही भाव युक्तियाँ भी चाहें निर्दोष न हों. पर मेरा पक्ष तो निःसन्देह जड़ जमाये हुए है कि हिन्दूधम सच्चा धर्म नहीं है और मज़बूत है। ईसाई-धर्म ही-जैसा कि उन्होंने उसे समझ रखा है-- एकमात्र सच्चा धर्म है। यह मनोवृत्ति उन उद्धरणों से प्रकट होती है जो मैंने कुछ समय पहले सी० एम० एस० की अपील में से 'हरिजन' में दिये थे। बगैर किसी ऐसी मनो हमारे गाँव भूमिका के इस अपील की कद्र करना दूर, वह समझ में यह प्रसन्नता की बात है कि हमारा ध्यान गाँवों भी नहीं पा सकी । हाँ, हिन्दू समाज में बुसी हुई छुअा- की ओर आकर्षित होता जा रहा है और बहुत-से छत या ऐसी ही अन्य भलों पर अगर कोई प्रहार करे तो वह शिक्षित उत्साही नवयुवक गाँवों में बसकर जीविको. तो समझ में आ सकता है। अगर इन मानी हुई बुराइयों पार्जन और लोक-सेवा के नवीन माग को ग्रहण को दूर करने के हमारे धर्म को शुद्ध रूप देने में वे हमारी करने की सोच भी रहे हैं। ऐसे ही नवयुवकों के सहायता करें तो यह एक ऐसा रचनात्मक कार्य होगा लाभार्थ महात्मा गांधी ने उपयुक्त शीर्षक से जिसकी बड़ी ज़रूरत है और उसे हम कृतज्ञता-पूर्वक 'हरिजन' में एक लेख प्रकाशित कराया है जो इस स्वीकार भी करेंगे। पर आज जो प्रयास हो रहा है उससे प्रकार है-- तो यही दिखाई देता है कि यह तो हिन्दू-धर्म को जड़मल एक युवक ने जो एक गाँव में रहकर अपना निर्वाह से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर दूसरा धर्म कायम करने की कोशिश कर रहा है, मुझे एक दुःखजनक पत्र करने की तैयारी है। यह तो ऐसी बात है, मानो एक भेजा है। वह अँगरेज़ी ज़्यादा नहीं जानता । इसलिए पुराना मकान है, जिसमें मरम्मत की बड़ी ज़रूरत है; पर उसने जो पत्र भेजा है, उसे संक्षिप्त रूप में ही देता हूँ-- रहनेवाले को वह अच्छा और काम देने लायक मालूम १५ साल एक कस्बे में बिताकर, तीन साल पहले, होता है। फिर भी कोई उसे जमीन में मिला देना चाहता जब कि २० बरस का था, मैंने इस ग्राम-जीवन में प्रवेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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