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सरखती
मात्र से सौन्दर्य की विभूतियाँ जागृत हो उठती हैं । साक्षात् देखने से तो और ही आनन्द मिलता है ।.
कला की दृष्टि से भी यह दृश्य भारतीय संस्कृति को राजस्थान की एक उत्तम देन समझा जा सकता है । 'पणिहारी' प्रथा के प्रायोजन में साहित्य, संगीत और कला तीनों आदर्शों का पूर्ण समन्वय हुआ है । इस प्रकार के गीतों को केवल पढ़कर साहित्यिक सन्तोष कर लेने से ही पूर्णानन्द का लाभ नहीं समझना चाहिए । इसका सजीव और सुन्दर रूप तो इसके वास्तविक दृश्य में रहता है और इसकी कलात्मक मधुरिमा बसती है इसके संगीत में। बाहरी जगत् के अधिकाधिक सम्पर्क से तथा ज़माने की बदलनेवाली हवा से अब यह मनोहारिणी प्रथा शिथिल होती जा रही है, तो भी लुप्त नहीं हो गई है। यों तो राजपूताना के प्रायः सभी राज्यों में यह दृश्य देखने को मिलता है, परन्तु मारवाड़ की पनिहारिनों का दृश्य विशेष मनोरम होता है । नागौर, मेड़ता, मूँडवा, जोधपुर और उदयपुर आदि नगरों में यह दृश्य अब भी वर्षा ऋतु में सुलभता से देखा जा सकता है 1
इस प्रथा ने वैयक्तिक दृष्टि से भी गृहस्थ जीवन में कलात्मक भावना की सुरुचि का समावेश किया है और नागरिक जीवन में सौन्दर्योपासना, स्वच्छता और स्वातन्त्र्य की वृत्ति की ज्योति का कुछ श्राभास दिया है ।
ज़रा इसके साहित्य-सौन्दर्य को भी देखिए । 'पणिहार' के बहुत से प्रचलित गीतों में से पश्चिमी राज स्थान में बहु प्रचलित एक गीत नीचे दिया जाता है
काळी एकाळायण ऊमटी, पणिहारी ए लो । मोटोड़ी छाँटाँ रो वरसै मेह, वाला जो ॥ भर नाडा भर नाडिया, पणिहारी ए 1 भरियो भरियो समँद- तळाव, वाला जो ॥ किरण जी खुणाया नाडा - नाडिया, पणिहारी ए किरणाँ जी खुणाया तळाव, वाला जो ॥ सुरैजी खुणाया नाडा-नाडिया, ए पणिहारी ए पिबजी खुणाया तळाव, वाला जो ॥ सात सहेल्या रे झूलरे, ए पणिहारी ए 1 पाणीड़े ने चाली रे तळाव, वाला जो ॥ घडो न डूबे बेवड़ो, ए पणिहारी एलो । ईढुणी तिर-तिर जाय, वाला जो ॥
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[ भाग ३८
सारे सहेल्या पाणी भर चाली, ए पणिहारी ए लो । पणिहारी रही ए तळाव, वाला जो ॥
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ठी ने हेलो मारियो, लंजा प्रोढीड़ा ए लो । घड़ियो उखणावतो जाय, वाला जो ॥ ओ रे काजळ-टीकियाँ, पणिहारी ए लो. थारोड़ा फीकरिया नैंण, वाला जो ॥ रे श्रोण चूनड़ी, पणिहारी ए लो । थारोड़ो मैलो सो वेस, वाला जो ॥
रा पिवजी घर वसै, लंजा ओढीड़ा हे लो । म्हारोड़ा वसै परदेस, वाला जो ॥ घड़ो पटक देनी ताळ में, पणिहारी ए लो । चालै नी प्रोठी री लार, वाला जो ॥
तो जाळू थारी जीभड़ी, रे लंजा क्रोढीड़ा ए लो । इसै तनें काळो नाग, वाला जो ॥
यो तो भर नै पाछी वळी, पणिहारी ए लो । आई आई फळसे रे बार, वाला जो ॥ घड़ियो पटक दूँ ऊभी चौक में, म्हारा सासूजी ए लो । वेगेरो घड़ियो उतराव, वाला जो ॥ किण थाँने मोसो मारियो, म्हारा बहूजी ए लो । किण थाँने दीवी है गाळ, वाला जो ॥ एक ओढी मनें इसो मिल्यो, म्हारा सासूजी ए लो । पूछो म्हारे मनड़े री बात, वाला जो ॥ देवर जी सरीसो डीघो- पातळो, म्हारा सासूजी ए लो । नणदल बाई - सारे उणिहार, वाला जो ॥ थे तो बहूजी भोळा घणा, म्हारा बहूजी ए लो । श्रो तो थाँरो ही भरतार वाला जो ॥ अर्थ
पावस की काली काली घन घटायें उमड़ आई हैं और मोटी मोटी बूँदोंवाला मेह बरसने लगा है । ताल - पोखरे भर गये हैं और समुद्र की तरह विशाल सरोवर भी भर कर उतरा रहा है ।
ए पनिहारी, ये ताल-तलैयाँ किसने खुदवाये हैं ?
और किसने खुदवाया है यह विशाल तालाब ? स्वसुरजी ने ताल तलैयाँ खुदवाये हैं। प्रियतम ने तालाब खुदवाया है । सात सहेलियों के भूलरे के साथ पनिहारी पानी भरने सरोवर को चली । तालाब लबालब जल से भरा है । घड़ा और उसके ऊपर का छोटा पात्र
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