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________________ संख्या २] सदा कुंवारे टीकमलाल "अरे बाप रे ! मर गई रे ! हाय रे-सच कहती हूँ लाश विजली की ही थी, इसमें किसी को शक न रह गया। रे; मैं कहीं नहीं गई। सचमुच ही मा को दौरा आ गया सबके दिल एकबारगी काँप उठे, पर यह सोच कर सबने था ।” लेकिन वह जितनी ही अपनी सफ़ाई देती थी, टीकम खुशी मनाई कि एक बला उनके बीच से चली गई ! को उतना ही जोश चढ़ता था और वह दूनी ताक़त से उस जब सवेरा हुया और लोगों ने पता लगाया तब मालूम पर डण्डा बरसाता था। इसमें उसे एक तरह का मज़ा हुआ कि वाकई रात को बिजली की मा बीमार थी और आता था-पति के कर्तव्य को पूरा करने का मज़ा। इसी से बिजली को देर हो गई थी। मगर होनहार थी, जो . अड़ोस में, पड़ोस में, चौतरे पर और चौक में पड़ासी होकर रही ! उसे कौन था, जो न होने देता! थे, जो दरवाज़ों और खिड़कियों में खड़े खड़े तमाशा देख रहे बिजली को मरे अभी पाँच-दस दिन ही बीते थे कि थे। जब मर्द औरत पर पिला हो तब पड़ोसी बेचारे क्या टीकम की मा अधीर हो उठी बेटे को फिर से ब्याह देने कर सकते हैं ? फिर भी तमाशाइयों में एक-दो श्रादमी के लिए। कुलीनो में उनकी गिनती होती थी, इसलिए ऐसे थे जिनकी पूरी हमदर्दी टीकम के साथ थी, मगर मँगनी का कोई टोटा न था। एक धनवान् माता-पिता की बिजली पर पड़नेवाली मार का त्रास उनके लिए असह्य सयानी और सुलच्छनी लड़की के साथ देखते-देखते था । वे आगे बढ़े और बड़ी मुश्किल से टीकम का हाथ टीकम की सगाई तय हो गई। लड़की के मा-बाप ज़रा रोककर बोले----अरे भाई ! क्या मार ही डालेगा ? आखिर सुधारक विचारों के थे; उनकी एक शर्त यह रही कि जब अभी लड़की ही तो है । अगर भल हो गई है तो दुबारा तक कान्ता तेरह बरस की न होगी, वे ब्याह न करेंगे। ऐसा नहीं करेगी। इतनी सज़ा कुछ कम नहीं है । बिजली लेकिन टीमक अब बालक नहीं था-नौजवान होगया वहीं बेहोश पड़ी थी। लोगों ने उसे उठाया, और घर के था। बिजली के कारण जो संताप उसे रात-दिन घेरे रहता एक कोने में ले जाकर पटक दिया। ... था उसकी चिन्ता से भी अब वह मुक्त था। ये उसके ___टीकम आखिरी बार गरजा-क्या कहा ? फिर जायगी? छटपटाने के दिन थे-दुनिया का आनन्द लूटने के ताब है उसकी, जो घर से पैर निकाले ! बदज़ात कहीं की- लिए अब वह अधीर हो रहा था। और कान्ता अभी एक ही डण्डे में ढेर कर दूंगा, ढेर ! बालिका थी। धीरे-धीरे मा का भी गुस्सा ठण्डा हुअा; बेटे ने भी हमजोलियों ने उसे राह दिखाई, और अपने इस शान्ति धारण की। पड़ोसी अपने घरों को चले गये। संकट से पार उतरने के लिए वह रास्ता छोड़कर बे रास्ते लड़-झगड़ कर दोनों खूब थक गये थे, और दोनों को कड़ाके चलने लगा। ‘देखा-देखी करे जोग, घटे काया बड़े रोग !' - की भूख लगी थी। इतने बड़े काण्ड के बाद बिजली से · वाली मसल हुई । टीकम दिन-दिन दुबला होने लगा, और कुछ खाने को कहना गुनाह बेलज्ज़त होता; इसलिए न देह में रोगों ने घर कर लिया । मा ने पूछा, न बेटे ने पूछा। दोनों खा-पीकर अपनी-अपनी जब ब्याह के दिन नज़दीक आये तब कान्ता के माता- . जगह चले गये और से रहे । पिता का ध्यान इस ओर गया। बस, एक साल के लिए . आधी रात को अचानक महल्ले के कुएँ में ज़ोरों का ब्याह और टल गया; और इस एक साल में टीमक की एक धड़ाका हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल की मारी देह ऐसी छीज गई कि ठठरी हो गई ! मा सरे आम महल्ले की सारी जनता जाग उठी। रात के उस काण्ड उसका बचाव करने लगी- यह शादी न करने का ही की भनक अभी तक सबके कानों में आ रही थी। धड़ाका नतीजा है कि लड़का इतना दुबला हो रहा है; कल शादी सुनते ही सबसे पहली बात जो लोगों ने सोची यही थी हो जाय, कल से वह पनपने लगे। कि कहीं बिजली ही तो कुएँ में नहीं गिरी। लड़की से आपको कितनी ही मुहब्बत क्यों न हो; .. बड़ा शोर हुअा; एक हंगामा-सा मच गया। कोई जाति के पंजे से छूटना मुश्किल है। और फिर एक तैराक की तलाश में गया, कोई रस्सियाँ ले आया और दो- लड़की के लिए सारे परिवार का यों परेशान और हैरान तीन घण्टों की मेहनत के बाद लाश ऊपर निकाली गई। रहना भी क्या कोई अकलमन्दी है ? बेचारी कान्ता के मा-बाप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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