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संख्या ३ ]
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कह सकते । " ऐसी नेत्रियाँ पहले तो स्त्रियों में व्याख्यान देना ही पसन्द नहीं करतीं, फिर यदि उन्हें कहीं विवश होकर स्त्रियों में बोलना ही पड़ जाय तो वे घर-गृहस्थी में लगी रहनेवाली स्त्रियों की निन्दा करके उनको 'स्वतंत्र' होने काही उपदेश देती हैं । वे सदा उन्हें प्रत्येक बात में पुरुषों की नकल करने - पुरुषों के ऐसे कपड़े पहनने, पुरुषों के खेल खेलने, पुरुषों का काम करने, बरन मदिरा और धूम्रपान करने तक को कहती हैं । देखा जाय तो यह पुरुष की एक भारी प्रशंसा है । परन्तु इस प्रशंसा की न तो उसे लालसा है और न वह इसके लिए याचना ही करता है । उसकी दृष्टि में यह एक दुःख और उपहास की बात है कि स्त्री कष्ट सहन करके शारीरिक और मानसिक रूप से अपनी आकृति को केवल इसलिए बिगाड़ ले ताकि वह पुरुष की एक अतीव भद्दी नक़ल दीख पड़े । इस आवेग के अनेक और अरुचिकर छोटे-छोटे परिणाम हुए हैं। दो पीढ़ियाँ पहले योरप में भी सब कोई यह मानता था कि स्कूल से ताज़ा निकली हुई अल्पवयस्क और मनोहर लड़की लालसाओं का एक पुंज- मात्र होती है । लोग जानते और मानते थे कि वह अभिमानी, स्वार्थी
छिछोरी होती है, और छोटे जन्तुओं के सदृश, केवल बाहर के उत्तेजनों से उसमें बुरी भावनायें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं । इसलिए घर के बड़े-बूढ़े उसको रोकते और दबाते रहते थे । आज कल की लड़कियाँ जिस प्रकार प्रायः दिगम्बरी वेश में बाहर दौड़ती और युवकों के सामने अपना सौन्दर्य-सौरभ बिखेरती फिरती हैं ताकि भौंरों के सदृश वे उनके गिर्द मँडराते रहें, उस प्रकार वे अर्द्धनग्नावस्था मैं बाहर घूमने नहीं पाती थीं । परन्तु आज की युवतियों के इस प्रकार लगभग नग्न अवस्था में घूमने का फल क्या हुआ ? उनका दिगम्बरीवेश व पूर्ववत् श्राकर्षण उत्पन्न करने में असमर्थ हो गया है । योरप के देशों में सागर तट पर दूर तक लेटी हुई र्द्धनग्न युवतियाँ ऐसी दीखती हैं, मानो सागर - पुलिन पर मांस के ढेर लगे हुए हैं । ऐसे दृश्य से दर्शक की तबीयत जल्दी ही ऊब जाती है । इससे हृदय में स्पन्दन उत्पन्न होने के बजाय पुरुष उकता कर जम्हाई लेने लगता है ।
जात नारियाँ
नारी-स्वातन्त्र्य के आन्दोलन का एक परिणाम लड़कों Sharma पर लड़कियों का धावा है । हमारे विश्वविद्या
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लय आज सूखी, सड़ी, बेडौल, चश्माधारिणी तरुण स्त्रियों से भरते जा रहे हैं । वे पाण्डित्य के पिछले दालान घूमती हुई ज्ञान को बुहारकर एकत्र करने के लिए घोर परिश्रम कर रही हैं । उनमें से जो सर्वोत्तम हैं उनके विद्या मन्दिर विवाह के सीधे मार्ग का काम देता है । उनमें जो सबसे बुरी हैं उन पर क्रमशः असफलदायक संस्कृति की मालिश होती रहती है और कालान्तर में वे जानखाऊ बन जाती हैं। किसी रूपवती स्त्री का पुरुष की जान खानो उतना बुरा नहीं लगता, युग-युगान्तर से पुरुषों को इसे सहन करने का अभ्यास हो गया है । परन्तु सींग के किनारेवाले चश्मेवाली बेडौल युवती द्वारा तङ्ग किये जाने से, जो लीग ऑफ नेशन्स (राष्ट्रसंघ) की रचना और प्रबन्ध सम्बन्धी संगठन समझाने के यत्न में पुरुष का सिर खा जाती है, पुरुष की श्रात्मा पर घाव हो जाता है । ऐसी स्त्री से कोई भी पुरुष विवाह करना नहीं चाहता । यह केवल योरप की ही बात नहीं, हमारे अपने देश में भी धीरे-धीरे यही अवस्था हो रही है । विदुषी युवतियाँ विवाहिता रहने पर विवश हो रही हैं।
ऊपर की पंक्तियाँ लिखने में मेरा उद्देश अपनी लिखने की कोठरी में सुरक्षित बैठकर स्त्री जाति पर कायर - सदृश
क्रमण करना नहीं है । मेरा श्राक्रमण तो उन नासमझ
पुरुषों पर जो बिना सोचे-समझे, पश्चिम के अनुकरण में, स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर स्त्रियों को उकसाकर उनकी दशा को सुधारने के बजाय बिगाड़ रहे हैं । हमें योरप की अवस्था से शिक्षा लेकर इस व्याधि को आरम्भ में ही रोक देना चाहिए ।
स्त्रियों को अपना स्थान जानने की आवश्यकता है । एक पुरानी कहावत है कि स्त्रियों का स्थान रसोई-घर है । यद्यपि इसमें बहुत कुछ सत्यांश है, तथापि मैं इसे थोड़ा अवरोधक समझता हूँ । गत कुछ वर्षो से स्त्रियाँ चूल्हाचौका छोड़कर बहुत दूर भटक गई हैं। अपने दुर्ग से बाहर निकलकर पुरुषों के जिन-जिन स्थानों पर इन्होंने हल्ला : बोला है वहाँ या तो इन्हें विफलता हुई है या भयप्रद सफलता । परन्तु इस बात से इनकार नहीं हो सकता कि उनकी प्राप्त की हुई नवीन स्वतन्त्रता ने थोड़ी-सी दिशाओं में उन्हें लाभ पहुँचाया है ।
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