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________________ गाँव लेखक, श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एस-सी०, एल-एल० बी० हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान, धन-जन से भरे घरों में से तेरे आँगन भर में फेरा ॥ रवि ऊपर आग बरसता है नभ-सा ऊँचा उठता विनोद । लक्ष्मी की वर विभूति तेरे अपने पावक शर तान तान । यह देख यहाँ नीचे आना खेतों में शस्य समान उठे। धरती तप रही इधर नीचे नर-तन धर हरि का सहित मोद || तेरे खलियानों-गोठों से तत्ती तत्ती सिकता-समान ॥ तेरे अतीत की वह गाथा वंशी की मीठी तान उठे॥ पर तप में निरत तपस्वी-से कह देगा विंध्याचल पुकार । तेरी सुन्दर सक्षमता का तेरे सीधे सच्चे किसान । आसेतु हिमालय साक्षी है फिर से जग लोहा मान उठे। श्रम के कष्टों को झेल रहे कैसा था वह वैभव अपार || अज्ञान निशा में पड़कर तू सिर उठा उठाकर साभिमान ॥ ऋतुएँ पाती हैं नित्य नई पग पग पर कितना हुआ भीत || हैं यही देश के विमल प्रान। धारण करके नूतन सिंगार। किस कुक्षण में था हुअा अरे ! हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान ॥ रो रोकर, तपकर या कँपकर । यह वर्तमान तेरा प्रणीत ।। कल कालिन्दी के कूलों में जाती हैं पर वे बार बार ॥ जो अब तक वह न व्यतीत हुआ ढूँढो अपना वैभव-विलास । जा छिपा कहाँ, किस कोने में युग पर युग यद्यपि गये बीत ।। गोकुल की गलियों से पूछ। क्या जाने वह तेरा अतीत ? यह कैसा जीवन है तेरा। निज पूर्व-रूप-बीता विकास । स्मृति ही है उसकी शेष बची आलस्य और उन्माद भरा। या रामराज्य में जा देखो जो स्वर्ण-सदृश युग गया बीत ॥ प्रतिपल भाई का भाई से गंगा-सरयू के आस-पास । देखी है तुमने युग युग से .. होता रहता है द्वेष हरा ॥ अपना वह प्यारा प्रकृत रूप निज जीवन की जो 'हार-जीत'। है तुझे पैरने को बाकी इठलाता-सा वह विमल हास ॥ क्या कहें कहानी हम उसकी। अज्ञान-सिन्धु कैसा गहरा। वह हँसता हुअा वसन्त और, क्या गावें तेरे पूर्व-गीत ॥ तूने तो तार दिया जग को वह नीचे झुकते से पयोद । श्रा देख तनिक निज वर्तमान । पर तू न तनिक भी आप तरा ॥ वह शश्यश्यामला भूमि तथा हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान || प्राता है इसका क्या न ध्यान ? वह प्रकृति देवि की भरी गोद ॥ वह कहाँ कहानी है तेरी हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान । अब दूर बहाकर निज प्रमाद धुंधली अब उसकी याद हुई। .. तू अगर चमक कर एक बार श्रो सोनेवाले गाँव ! जाग। कृषि के गिर जाने से तेरी प्रज्वलित दिनेश समान उठे। आलस्य आदि को दूर हटा कितनी नीची मर्याद हुई ॥ . तेरा श्रम तेरे घर घर में अपनी कलङ्ककालिमा त्याग ॥ वह बसी हुई बस्ती तेरी सुख का फिर स्वर्ण विहान करे। बिजली-सी जो भर दे दिल में क्रम क्रम से फिर बरबाद हुई। . तेरा प्रकाश ही फैल फैल ऐसा वह गा दे कर्म-राग। जिसकी विभूति से नगर बने तेरे तम का अवसान करे॥ दुख-दैन्य जलें जिसमें ऐसी पर वहाँ न तेरी याद हुई ॥ शत शत जिह्वात्रों से सागर जल उठे दिलों में प्रबल आग ॥ . निज वैभव ज्योति समेट सभी तेरा गुरु गौरव गान करे। युग युग से तूने आज तलक हो गया अस्त तेरा अतीत । . .. तू वही वेश धर ले जिससे पाया है दुख भी बहुतेरा। जी उठे नया जीवन पाकर तुझ पर सब जग अभिमान करे। अब अाज अविद्या का अपना वह लुप्त कला-कौशल तेरा। छा दे फिर निज वैभव वितान । तु शीघ्र उठा दे रे डेरा॥ वैभव का विमल प्रकाश करे। हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान ॥ २६४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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