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________________ ३२८ सरस्वती [भाग ३८ मालिनी-चल चाण्डाल ! जा निकल काम पर । लम्बोदर-अरे बिलकुल आँखों-देखा। वह ख़न भी फागुन-[निराश होकर क्रोध जताता है।-अच्छी बात किसी और का नहीं, इसी बेचारे लम्बोदर का। है। खूटी पर से सेट जी की धोती और अँगौछा फागुन-हैं ! आपका ही खून ! चकित हो चाय का उतारकर ले जाता है। __ गिलास भूमि पर रख लम्बोदर की ओर बढ़ता है।] मालिनी--में नहीं जानती यह बदबूदार धुवाँ इन लोगों लम्बोदर-अरे पेट में। पेट को दबाता है। को इतना प्यारा क्यों हो गया ? [कुछ याद अाकर] फागुन-हाँ, हाँ, पेट में ही, आपके किसी पुराने कर्जदार चाय उबलने लगो होगी। [जाती है। ने छुरा तो नहीं भोंक दिया ? [लिहाफ उठाकर उसके [लम्बोदर का बीमार होकर पाना । भूमि पर बैठकर पेट में देखता है। ] घाव ख़तरनाक तो नहीं है हाथ से पेट दबाना । सरकार ! लम्बोदर-अरे बाप रे ! सब लाल हो गया ! खून की न लम्बोदर-अरे छुरा-चाल कुछ भी नहीं । घाव भीतर से हो जाने कितनी नदियाँ बह गई । एक-एक मिनट में गया जान पड़ता है। श्रोह ! मरा! मरा! अब नहीं शरीर से ताक़त निकलती चली जा रही है। बड़ी बच सकता ! मुश्किल से हाथ-पैर धो सका। सिर में चक्कर आता फागुन-अजी सरकार ! धीरज रखिए, अापको कुछ भी है। आखिर इसका कारण है क्या ? गेहूँ के चार नहीं हुया है। रात अधिक सिकी रोटी निगल गये टिक्कड़ और बालू का तीन ताला रस, इसे छोड़कर होंगे, वही अङ्गद के जूते, नहीं पैर की तरह अापके और क्या मैंने रात को खाया ? (खड़ा पेट में डट गई है। [चाय का गिलास उठाकर] हैं !........ सिर घूमता है। [फिर बैठ जाता है ।। लीजिए, यह गरमागरम चाय सुड़क लीजिए । कर दिया किसी ने-ज़रूर जाद कर दिया ! नहीं बच इससे वह रोटी नरम पड़कर अपने पाप नीचे का सकता। यह पड़ोसियों की अाँख का काँटा लम्बोदर सरक जायगी। अाज के दिन नहीं बच सकता। चारपाई पर लेट लम्बोदर---अरे रोटी-बोटी कुछ भी नहीं अटकी। यहाँ तो जाता है ।] नीम के पेड़-तले के हनुमान जी ! हो! स शरीर का बह गया। ख़बर लेना महावीर जी महाराज ! तुम्हें असली बन्दर फागुन-फिर वही खून! आपको खनी बवासीर तो नहीं है ? माको घासलेट की टोनों की छत चढ़ाऊँगा। [दर्द लम्बोदर-चुप रह । क्या गंदा नाम लिया ! बवासीर हमारे मालूम कर] उफ़ ! सुई, भाले, बछौं, और भी न जाने पिता जी की सौ पुश्तों में से किसी को भी नहीं हुई। क्या-क्या चुभ रहे हैं ! फागुन-तो क्या हर्ज है ! चाय नुक्सान तो कभी करती [फागुन का क य लेकर आना ।] लेवर माना। ही नहीं। इसकी पत्ती-पत्ती में गुन भरे हुए हैं। फागुन-हैं सरकार ! फिर सो गये क्या ? ., ठंडी हुई जा रही है। मज़ों की आधी बटालियन को लम्बोदर-कर दिया, कर दिया अरे बाप रे ! [करवट तो चाय यों ही परास्त कर देती है। लीजिए, पी - बदलता है।] लीजिए, अभी साबित हो जायगा। [लम्बोदर के मना फागुन-क्या कर दिया । करते रहने पर भी उसके अोठों तक चाय का गिलास लम्बोदर-सब कुछ कर दिया। बाकी कुछ भी नहीं रक्खा। बढ़ाता है।] फागुन-क्या हो गया सरकार ! अापकी एकाएक कैसे यह लम्बोदर-हाथ मारकर चाय का गिलास दूर फेंक] उल्लू ! __हालत बदल गई ? शौच जाते वक्त तो भले-चंगे थे। . गधे ! तुझे हो क्या गया ? मैं तो मर रहा हूँ, तुझे लम्बोदर-अरे लाल-लाल खून, खून की नदियाँ, नदियों . हँसी सूझी है। [दर्द से चिल्लाकर] मरा, मरा, श्रो का महासमुद्र !......श्रोह नहीं सहा जाता! बाप रे ! बड़ा दर्द है ! फागुन-यह खून का महासमुद्र ! कहाँ सरकार ! आप फागुन-[अलग हटकर धीरे-धीरे] मामला संगीन नज़र किसी ख्वाब का तो ज़िक्र नहीं कर रहे है ? अाता है। सेठ जी की थैली में छेद किये बिना यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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