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________________ संख्या ४] * खूनी लोटा ३२९ . दर्द इस मकान के बाहर जानेवाला नहीं मालूम मालिनी सेठ जी की परिचर्या में संलग्न होती है। देता। चलूँ , श्रीमती जी से जाकर सब हाल कहूँ । . [चाय का गिलास उठाकर चला जाता है।] तृतीय दृश्य लम्बोदर नहीं बच सकता । सिर में भी दर्द हो चला है। वही कमरा, उसी दिन सुबह, आधा घण्टे बाद । [माथे पर हाथ रखकर] जेठ के दोपहर की तरह लम्बोदर उसी प्रकार बीमार पड़ा है। मालिनी उसका तपने लगा है। [एक हाथ से दूसरे हाथ की नाड़ी माथा दबा रही है। देखकर] नाड़ी बैलगाड़ी की भाँति लुढ़क रही है। लम्बोदर-अोह ! नहीं सहा जाता, अब तो नहीं सहा वन ही को लेकर इस पुतले में करामात है । वही जाता ! कहाँ रह गया रे प्रो फागुन ! अभी तक जब सब-का-सब निकलकर बह गया तब ख़ाक के सिवा . वैद्य जी का लेकर नहीं पाया ? और रह क्या जायगा ? अोह ! दर्द ! दर्द ! पीड़ा! [फागुन के सिर पर खरल रखकर दवा घोटते हुए पीड़ा ! [छटपटाता है।] वैद्य जी का प्रवेश।] फागुन मालिनी के साथ आकर उसे सेठ जी की दशा फागुन-श्रा पहुँचा सरकार ! और दवा भी मेरी खोपड़ी दिखाता है । पर घुटती हुई चली आ रही है। अब आपके चंगे मालिनी-[चिन्ता के साथ हैं ! तुम्हें यह एकाएक क्या होने में क्या शक है ? हो गया ? - वैद्य जी-हाँ, इसने कहा कि लम्बोदर जी के पेट में दर्द लम्बोदर-उफ़ दर्द ! दर्द ! हर नस हर नाड़ी में दर्द ! है। मैं फौरन ही ताड़ गया कि वही पुराना वायु का हर हड्डी हर पसली में दर्द ! बाल-बाल में दर्द, बिन्दे- गोला फिर लुढ़कने लगा होगा। मेरे पास दवा तैयार बिन्दे में दर्द ! [बेचैनी दिखाता है। ] न थी। समय की बचत के लिए ऐसा किया । दवा मालिनी-इसका सबब ? भी घुट गई, रास्ता भी कट गया। [फागुन के सिर से लम्बोदर-खन-वन-वन ! लाल--लाल-लाल ! खरल उतार लेता है। एक-दम लाल सागर मालिनी देवी ! अब नहीं वच लम्बोदर---बड़ी कृपा की महाराज ! लेकिन यह वायु का सकता। हाथ-पैर फेंकता है।] गोला नहीं है। मालिनी-हे भगवान् ! कुछ समझ में नहीं आता। ये वैद्य जी--अजी, वही वायु का गोला है, दूसरा हो नहीं आज किस तरह बोल रहे हैं ? . सकता । मैं इसे बहुत दिनों से पहचानता हूँ। खरल फागुन---अजी, इनका मतलब मैं समझाता हूँ । अभी-अभी से दवा निकाल उसकी गोली बनाकर] लीजिए, इस दिशा जाने से पहले ये दुरुस्त और चौकस थे। वहाँ गोली को गरम पानी के साथ निगल लीजिए। . इन्हें न-जाने कितना खून गिरा कि इनकी यह लम्बोदर [गोली हाथ में लेकर]-इस गोली-अोली से . हालत हो गई। . कुछ न होगा। तुम्हारे पैर पड़ता हूँ वैद्य जी, मुझे लम्बोदर-अरे ! मेरी जान जाती है और तुम खड़े खड़े बचानो। मुझे बहुत खून गिरा है, यही मेरे पेट के तमाशा देखोगे क्या? .. दर्द का कारण है। मालिनी-जा फागुन जा, किसी डाक्टर को ला। वैद्य जी-कितनी बार खून गिरा ? लम्बोदर-नहीं, नहीं मुझे डाक्टर नहीं चाहिए । इस गली लम्बोदर-अज़ी, एक ही बार में निम्बूनिचोड़ में पड़े हुए के नोक पर नगदानन्द-औषधालय में गरलपाणि निम्बू की तरह निचुड़कर रह गया हूँ। इस बार बचा पण्डित खरलघोटक शर्मा जी रहते हैं। वे हमारे सकते हो तो तुम्हें समचा एक वर देता हूँ वैद्य जी! . बार के वक्त से हमारे सुख-दुख के साथी हैं। जा, वैद्य जी-ठीक है, मैं समझ गया। हाँ, ज़रा नाड़ी तो उन्हीं को बुला ला। दिखाइए । [नाड़ी हाथ में लेकर] बात वही है फागुन–जो आज्ञा । [जाता है।] सेठ जी ! जड़ में वही वायु का गोला है । ज़रा पेट तो फा.२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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