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संख्या ३]
बिछा ली और उसी पर वह सो गया । बासन्ती उस समय केली ही चारपाई पर सोई हुई थी। ज़रा देर के बाद करवट बदलने पर उसने देखा कि सन्तोष भूमि पर लेटे हुए हैं। यह देखकर बासन्ती बहुत ही विस्मित हुई । वह सोचने लगी कि यह क्या हुआ । वे भूमि पर क्यों लेटे हैं ? वह उठकर बैठ गई । सन्तोष उसकी ओर पीठ किये और चदरे से सारा शरीर ढँके लेटा हुआ था । ज़रा देर तक उसकी ओर ताकने के बाद वह फिर लेट गई ।
शनि की दशा
बासन्ती माता-पिता से हीन थी। जिस परिवार में उसका पालन-पोषण हुआ था उससे उसे सदा अनादर ही सहना पड़ा था। इस प्रकार उसका जीवन सदा से ही बहुत कष्टमय रहा था । ऐसी अवस्था में एक ज़मींदार की पुत्रवधू होकर जब वह राजप्रासाद के समान ऊँची अट्टालिका में पहुँची तब उसने सोचा कि अब हमारे दिन फिर गये हैं । परन्तु जिसके ऊपर विधाता की ही भृकुटि वक्र होती है उसे भला सुख कहाँ से मिल सकता है ? उसे तो आशा से कहीं अधिक सुख-सामग्रियाँ प्राप्त करके भी उनके उपभोग से वञ्चित ही रहना पड़ता है ।
उत्सव के दिन बहुत अच्छी तरह से बीत गये । एक एक करके नातेदार रिश्तेदार स्त्री-पुरुषों का दल बिदा हो गया। बुना जी का भी इलाहाबाद लौटने का समय या गया । परन्तु भतीजे का रंग-ढंग देखकर वे डर गई । दूसरे की कन्या को अपनी बनाने के लिए कितनी सहि
ता की आवश्यकता पड़ती है, यह बात शायद बहुत से लोग नहीं जानते । नववधू जिस समय अपना श्राजन्म का परिचित घर, सखी-सहेलियाँ, माता-पिता तथा अन्यान्य श्रात्मीयजनों का परित्याग कर, हृदय में अपार वेदना लेकर ससुराल में निवास करने के लिए श्राती है, उस समय एक व्यक्ति का निष्कपट प्रेम एवं अनुराग प्राप्त करके पिता के यहाँ की स्मृतियों को भुलाने लगती है, भुला भी देती है । परन्तु जो अभागिनी उस व्यक्ति के प्रेम से वञ्चित रहती है उसे सुखी करने के लिए कोई चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, वह सुखी नहीं हो सकती । बासन्ती का भी यह हाल हुआ था अवश्य, किन्तु अपनी इस अवस्था का अनुभव करने के योग्य वह तब तक नहीं हो सकी थी। परन्तु भतीजे की साधारण गम्भीरता देखकर एक अज्ञात श्राशङ्का से बुना जी का
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हृदय कम्पित हो उठा। वे सोचनी लगीं कि विधाता ने यदि बासन्ती के भाग्य में ऐसा ही स्वामी लिखा था तो उस बेचारी को इस तरह अनाथिनी क्यों बना रक्खा है !
दृष्ट का यह कैसा निष्ठुर परिहास है ! इसका परिणाम क्या होगा, यह कौन बतला सकता है ? बासन्ती का तो अभी सारा जीवन ही पड़ा है । तो क्या ग्राजन्म उसका यही हाल रहेगा ? इस बात की तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकती हूँ ।
सोहागरात के दिन के बाद सन्तोष ने जब अपने पढ़नेवाले कमरे में श्राश्रय ग्रहण किया तब से वह बहुत कम बाहर निकलता था । किसी से बातें भी वह बहुत कम करता था । एक कोने में पड़े ही पड़े वह रात की रात और दिन का दिन काट दिया करता था । यदि कोई कभी उसके पास जाकर बैठता तो उसके मुँह पर विरक्ति का भाव उदित हो उठता । इस कारण धीरे धीरे उसके पास जानेवालों की संख्या कम होने लगी । लोग सोचने लगे कि जब वे रुष्ट ही होते हैं तब उनके पास जाने से लाभ ही क्या है। सोहागरात के बाद ही कलकत्ता जाने की भी उसकी इच्छा हुई थी, केवल बुना जी के अत्यधिक
ग्रह से ही वह नहीं जा सका । उन्होंने सन्तोष का हाथ पकड़कर कहा था कि जिस दिन मैं जाऊँगी, उसी दिन तू भी जाना । इसी लिए वह रुक गया ।
सन्ध्या का अन्धकार प्रगाढ़ हो चुका था । सन्तोष के कमरे में उस समय भी चिराग़ नहीं जला था । उसी कमरे में टहलते टहलते वह सोच रहा था कि अब सुषमा के कैसे मुँह दिखला सकूँगा । उस दिन मैं द्विज- देवता तथा अग्नि को साक्षी बनाकर जिस एक बालिका का हाथ पकड़ चुका हूँ, जिसके सुख-दुख का अंशभागी बन चुका हूँ, उसके भविष्य का उत्तरदायित्व किस पर है ? मुझ पर या पिता जी पर ? मैंने तो उन्हें अपने मन का भाव पहले ही सूचित कर दिया था। उस पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया । ऐसी दशा में उसकी ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है । मेरे जीवन की अधिष्ठात्री देवी तो केवल सुषमा है । उसे छोड़कर और कोई भी मेरे हृदय पर कभी अधिकार नहीं कर सकता। पिता जी के इस अन्याय को मैं कभी नहीं सह सकूँगा । मुँह पर मैं उनके प्रति कभी अवज्ञा अवश्य नहीं प्रकट करूँगा, किन्तु इसका फल शीघ्र ही उन्हें देखने को मिलेगा ।
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