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________________ ग्राम्य जीवन की एक सरस कहानी मुक्तिमार्ग लेखक, श्रीयुत चन्द्रभूषणसिंह कभी किताब-कापी न होने की शिकायत, कभी फ़ीस न धो की मा कब मरी यह उसको पहुँचने का बखेड़ा । मास्टरों की फरमाइशे और घर की नहीं मालूम, लेकिन इतना अच्छी परेशानियाँ अलग थीं। पहले से ही माधो का बाप गाँव के तरह याद है कि जब से उसने उन लड़कों से जो दर्जे में माधो से एक वप आगे थे. is होश सँभाला, कभी आसानी से किताबे माँग लाया था। परन्तु जब माधो उस दर्जे में पहुँचा पेट भर खाने को नहीं मिला। तब प्रायः सभी पुस्तके बदल गई। जब लड़के ने बाप से गरीबी ने उसकी मा को चिड़चिड़ा यह बात कही तब वह इसे बेटे का बहाना समझकर मदरसे बना दिया था। माधो को लड़कपन और उसके बचपन के पंडित जी के पास दौड़ा हुअा गया और फरियाद की। की शोखियों पर मा का चिढ़ना आपत्तिजनक बात नहीं पंडित जी ने माधो की बात का समर्थन किया। लेकिन हो सकती। लड़के को बे-मतलब डाँटना-फिटकारना उसने यही समझा कि 'पास कराई' न पहुँचने से उसे उसका स्वभाव-सा हो गया था। न घर में किसी का माधो किताबें बदल जाने की मार दी जा रही है। फ्रीस का को ठीक वक्त पर बुलाने की फिक्र थी और न उसी को तकाज़ा उचित था, लेकिन उसमें जल्दबाज़ी इसलिए खेलने से फुसत मिलती थी कि समय पर खाना खाने की जाती थी कि भुट्टे जहाँ रोज़ गुरु जी के पास पहुँचना आये। जब जी में अाता, खाना खाने को बैठ जाता-कभी चाहिए. वहाँ कभी कभी पहँचते थे और वह भी तकाज़ा वक्त से दो घंटे पहले और कभी चार घंटे बाद। पहले करने पर। आता तो अक्सर जवाब मिलता-'इस वक्त क्या धरा है, लाचार होकर माधो के पिता ने लड़के को घर बिठा चलो अभी साग कच्चा है, घड़ा भर में पाना' । माधो पहले दिया और वपों में तय होनेवाला माग कुछ महीनों में तो उठता ही मुश्किल से और अगर उठ जाता तो फिर ही ख़त्म हो गया। माधो के चेहरे पर फिर प्रसन्नता दिखाई घटे दो घटे क्या, दिन दिन भर ग़ायब रहता। शाम को देने लगी। अभी तक तो गोली और गुल्ली-डंडा ही दल अाता तब झिड़कियों को अनसुनी करते हुए थाली लेकर बहलाने के लिए काफ़ी थे, अब आवारगी भी उसके बैठ जाता और खूब खाता । खाना कम पड़ता तो इतना मनोरजन का एक आवश्यक अंग बन गई, और वह कभी शोर मचाता कि कभी कभी पड़ोसी दौड़ पड़ते कि क्या कभी दिन-दिन, रात-रात भर ग़ायब रहता। लड़के का हुश्रा । कभी किसी पड़ोसी के ही घर से खाकर आता था। आवारा-पन देखकर रमई को उसकी शादी की फ़िक्र हुई। और के घर बिना बुलाये जाकर खा लेना मा के नजदीक बहुत ही अनुचित और छोटी बात थी, लेकिन हठी माधो माधो का ब्याह धूम-धड़ाके के साथ हुआ । सवा सौ जिसे मा को जलाने ही में मजा मिलता था. अपनी आदत रुपये खर्च हए । सौतेली मा के लड़का भी पैदा हया। से बाज़ आनेवाला न था। नई बहू अपनी ख़िदमत की बदौलत सास के गले का हार - बारहवें वर्ष मा के विरोध करने पर भी माधो स्कूल बन गई। मा का पैर दबाना, सिर में तेल डालना, बतन भेजा गया । पढने-लिखने में उसका जी बिलकुल नहीं माँ जना, रोटी बनाना यहाँ तक कि घर का कुल काम लगता था, लेकिन जब मा को भी उसने पढ़ने के खिलाफ उसने संभाल लिया। रजनी एक तरह से इस्तीफा दे चुकी देखा तब वह स्कूल के हाते में कैद होने के लिए उत्सुक थी। काफ़ी चतुर और होशियार होने पर भी नई बहू घर हो उठा। परन्तु गरीबों के भाग्य में विद्या-धन कहाँ ? के काम-काज में उससे बराबर सलाह लेती रहती थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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