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संख्या २ ]
शान्ति के दूत
दिये । घरवालों की क्रोध तथा खीझ से विकृत ऐसी ऐसी सूरतें मेरे सम्मुख नाचने लगीं कि मैं विह्वल हो उठा और मेरे मुख से अपने आप हँसी की धारायें बहने लगीं । नजाने मैं कितनी देर ऐसे ही बैठा रहा । पर मैं अभी इन्हीं विचारों में तल्लीन था कि गाड़ी की भूचाल को-सी गड़गड़ाहट ने मुझे चौंका दिया। मैं उतावली से उठ खड़ा हुआ और अपने चारों ओर देखा । पता नहीं क्यों मेरे इर्द-गिर्द कोई पाँच-सात मनुष्य खड़े थे और मेरी ओर ऐसा देख रहे थे, मानो चिड़ियाघर से कोई जीव भाग
या हो । खैर, मुझे उठते देखकर वे सब नौ-दो ग्यारह में पूछा। अब तक मैं अपने आप पर पूरा प्रभुत्व पा हो गये ।
गाड़ी में वैसी भीड़ न थी । मेरे सामनेवाला डिब्बा लगभग ख़ाली पड़ा था। चारों ओर की बेंचों पर दो-दो चार-चार यात्री बैठे थे । मध्य की बेंच पर केवल एक बूढ़ा-सा मनुष्य मैले-कुचैले कपड़े पहने एक बड़े से लट्ठ का सहारा लिये बैठा सामनेवाले मनुष्य से बातचीत में लगा था । शायद उसके बाल-बच्चों की संख्या और पत्नी के स्वभाव-विषयक प्रश्न पूछ रहा था । मैं उसी बूढ़े के पास जा बैठा । मेरे आते ही उसने सामनेवाले यात्री के छोड़कर मेरी श्रोर ध्यान दिया "तुम किधर जा रहे हो ?" "अमृतसर ।" " काम से ?"
"नहीं । दरबार साहब देखने ।”
" दरबार साहब " ? फिर क्या था वह लगा उस स्वर्णमन्दिर की प्रशंसाओं के पहाड़ गढ़ने । एकाध क्षण तो मैं उसकी श्रुति-रंजना-भरी बातों को सुनता रहा । फिर 'हुँ हुँ करता हुआ ऊँघने लगा। मुझे ऐसी अवस्था में बैठे कठिनता से एक मिनट बीता होगा कि बन्दूक की गोली की भाँति मेरे कान में आवाज़ पड़ी, "दादा ।" और इसके साथ ही पटाक करता हुआ मेरा जूता किसी दैवी कोप की भाँति मेरी गोदी में या गिरा । मैं काँप उठा । अभी तो मैं इसे उस बड़े ढेर के नीचे छिपाकर चला या रहा था । पता नहीं, कौन-सी प्रेत- प्रेरणा ने इसे इतनी शीघ्र फिर यहाँ ला फेंका। कुछ क्रोध पर अधिक विस्मयसूचक दृष्टि से मैंने प्लेटफार्म पर देखा । सामने नाई खड़ा था और हाँफता हुआ अपनी साँस सँभालने में लगा था । मेरी जिह्वा पर बीसियों शब्द श्राये, पर गले में अटक कर
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रह गये । श्राख़िर बड़ी कठिनता से केवल इतना कह सका, "कहाँ मिला ?”
अब तक यद्यपि वह बहुत कुछ सँभल चुका था फिर भी उखड़ते हुए स्वर में कहने लगा- " अँधेरे कमरे में लोहे की चीज़ों के ढेर के नीचे । आपके आने से थोड़ी ही देर बाद बीबी जी नये बछड़े के लिए एक खूँटी ढूँढ़ने गई तो इत्तिफ़ाक से उनका हाथ इन पर जा पड़ा । और उसी समय उन्होंने मुझे स्टेशन की ओर भगा दिया । "
"पर वहाँ रक्खा किसने ?” मैंने भोले-भाले स्वर
चुका था।
"किसी लड़की की शरारत होगी। बीबी जी उन पर बहुत ख़फ़ा हो रही थीं ।" उसने जवाब दिया, पर इसके साथ ही उसके चेहरे पर एक अर्थ भरी मुस्कान खेल उठी । मुझे चीरती हुई दृष्टि से देखते हुए वह फिर कहने लगा" पर यदि सच पूछो तो -- "
परन्तु वह अपना वाक्य समाप्त न कर सका। गाड़ी जो कुछ देर से सीटी द्वारा अपने चलने की सूचना दे रही थी, झटका देकर सहसा चल दी। देखते ही देखते वह मेरी नज़रों से ओझल हो गया । मैंने जूते का अपने पाँवों में पहन लिया और अपने भाग्य को कोसता हुआ मस्तक पर हाथ रखकर बैठ गया । पर बूढ़े मियाँ कब चैन लेने देते। मुझे हिलाकर बोले - " जूता है खूब मज़बूत
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जी में तो आया कि उससे कह दूँ कि यदि इतना पसन्द है तो तुम्हीं ले लो, पर न जाने वह बुरा मान ले, इसलिए 'हाँ' कहा और उससे मुँह मोड़कर उस आठ आने के जूते को नीचा दिखाने का ढंग सोचने लगा ।
( ५ )
सिखों के स्वर्ण- मन्दिर की अद्भुत कारीगरी का निरीक्षण करने के अनन्तर मैं थोड़ा थककर मन्दिर को चारों ओर से घेरे हुए तालाब की सीढ़ियों के एक एकान्त काने में आ बैठा । धोती को घुटनों तक ऊँचा करके मैं I अपने पाँव तालाब के निर्मल तथा शीतल जल में डालकर वहाँ तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियों के खेल देखने लगा । कितनी उमंग से वे एक-दूसरी के ऊपर नीचे पानी का चीर रही थीं । उमंग ? पर श्राज तो मुझे चारों ओर उमंग
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