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ही उमंग दीख रही थी मेरा हृदय भी आज उमंगों से • भर रहा था, क्योंकि आज मैं अपने जूते के शाप से सचमुच मुक्ति पा चुका था। उस जूते को गाड़ी में छोड़े मुझे लगभग तीन घंटे बीत चुके थे । अत्र तक वह मुझसे बीसियों मील दूर जा चुका होगा और प्रतिक्षण मेरे और उसके बीच का अन्तर बढ़ रहा था। यदि किसी की दृष्टि बढ़ उस पर पड़ भी गई तो विशेष यत्न करने पर भी जूते के स्वामी का पता न चल सकेगा। क्योंकि किसी बासुरी बल'द्वारा वह जुता यदि कहीं जीवन भी पा जाय तो भी उसकी जवान न खुल सकेगी। आख़िर है तो वह किसी मूक पशु की खाल का ही बना न । अब मुझे उस जूते से कोई भय न था। अब देखूँगा कौन-सा जूता मेरे पाँव के निकट खाने का साहस करता है। मैं इसी बिजयोल्लास में उठा और भूमता हुआ मन्दिर के बड़े द्वार की ओर बढ़ने लगा, क्योंकि मुझे घर ले जानेवाली गाड़ी छूटने में अब थोड़ी ही देर थी। मैं इसी अलमस्त चाल से चलता हुआ बाहर निकलकर स्टेशन की ओर चल दिया। पर मैं अभी कठि नता से दो-चार क़दम ही गया था कि किसी ने पुकारा, "सुनिए तो ।”
मैंने मुड़कर देखा तो गाड़ीवाले चूड़े मियाँ एक मैलेसे कपड़े में लिपटा हुआ कुछ बग़ल में दबाये खड़े थे । मेरा माथा उनका । इनका यहाँ क्या काम ? क्या मेरा जूता ही तो बगल में लिये हुए नहीं हैं। मेरा हृदय पसलियों से ठोकरें खाने लगा, गला सूखने लगा। पर शायद कुछ और चीज़ हो। मैंने साहस करके पूछा- क्यों, क्या बात है
सरस्वती
יי.
"हाँ आप इसे गाड़ी में भूल आये थे मैं उठा लाया। जानता था, आप यह मन्दिर देखने अवश्य खायेंगे, इसी लिए यहीं पहुँचा। पर आपने प्रतीक्षा बहुत करवाई है। कोई दो घंटे से बैठा हूँ।" यह कहकर बूढ़े ने वह जूता मेरे हाथ में पकड़ा दिया। जूता हाथ में आते ही
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"आपका जुता ---" उसने बगल की ओर हाथ बढ़ाते स्टेशन की ओर चल दिया। हुए कहा ।
"मेरा जूता ?” मेरा सिर घूम उठा टाँगें काँपने लगीं, आँखों के आगे बादल छा गये । लगभग संज्ञाहीन होकर मैं सिर थामकर पास की एक चन्द दूकान के पते पर बैठ गया।
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मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो साँप ने काट खाया हो । उछलकर उठ बैठा और लड़खड़ाती-सी ज़बान से मेरे मुँह से निकला - "इसे आप ही ले जाइए ।"
"मेरे पाँव में यह छोटा है"। उसने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा । जिसका मतलब यह था कि यदि यह उसे ठीक होता तो वह पागल न था जो मेरी तलाश में निकलता । 1 'समझ गया कि उसने इतनी दौड़-धूप मेरे प्रति प्रेम अथवा सेवा-भाव के कारण नहीं, बल्कि कुछ ताँबे के टुकड़ों की आशा में की है। यद्यपि असल में तो वह जूता लाकर उसने मेरा हृदय टूफ टूक कर दिया था, पर सांखारिक दृष्टि से तो उसने मुझ पर एक उपकार ही किया था। इसका बदला तो चुकाना ही होगा। मैंने जेब से एक चचत्र निकाली और उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा-“आपको कष्ट तो बहुत हुआ है, पर आशा है, मेरा अनुरोध मानकर इस तुच्छ भेंट को अवश्य स्वीकार करेंगे।"
उतावली से हाथ बढ़ाकर चवन्नी पकड़ते हुए उसने कहा - "अरे ! तुम तो योंही तकलीफ़ कर रहे हो ।" इससे आधे जगा के बाद ही यह बाज़ार की भीड़ में जा मिला।
चवन्नी तो मैंने अवश्य दे दी, पर मेरे रोम रोम में उस दुष्ट जूते के प्रति अग्नि भड़क उठी । मैं जूता उठाकर तेज़ी से अस्ती से बाहर की ओर भागा। कोई एक मील की दूरी पर एक बीरान-सा पृथ्वी का टुकड़ा था, जहाँ याक और घास-फूस के सिवा कुछ न उगा था। चालू से वहीं एक गढ़ा बनाया । ढोकर लगाकर उसी में मैंने जूते को फेंक दिया। गढ़े को मिट्टी से भरकर मैं वहाँ से
उसी शाम मैं घर पहुँच गया। घरवालों से क्या बातचीत हुई, इसका वर्णन करना तो अब व्यर्थ है, पर वह सारी रात मैंने बहुत बेचैनी से काटी। उस जूते ने स्वप्नों में वे भयानक रूप धारण किये कि मैं पल-पल पर काँपता चला गया । वह रात्रि क्या मुझे तो अब तक उस जूते का धड़का लगा हुआ है। बहुत दूर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों का जोड़ा भी देख लेता हूँ तो काँप जाता हूँ। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेरे पाँव के वे दोनों जूते पंख लगाकर मेरी ओर बढ़े आ रहे हैं।
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