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________________ पंडित भगवतीप्रसाद वाजपेयी हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ कहानी-लेखक । इस कहानी में इनकी दार्शनिकता खूब प्रस्फुटित हुई है । प्रायश्चित्त लेखक, श्रीयुत भगवतीप्रसाद वाजपेयी विपिन पिन अपनी बैठक में बैठा हुआ एक संवाद - पत्र देख रहा था। प्रशान्त मानस में यदि वह ऐसा उपक्रम करता तो कोई बात ही न थी । किन्तु वह तो अपने अन्तःकरण के साथ परिहास कर रहा था। एक पंक्ति भी, निश्चित रूप से, वह ग्रहण नहीं कर सका था । यह विपिन इस समय जो अतिशय उद्विग्न है और किसी भी काम में उसकी जो प्रवृत्ति नहीं है उसका एक कारण है। बात यह है कि वह आशावादी रहा है। वह मानता आया है कि चेष्टा-शीलता ही जीवन है । किन्तु आज उसे प्रतीत हुआ है कि नियति के राज्य में श्राशा और आस्था की कहीं कोई गति नहीं है । यह समस्त विश्व कवि का एक स्वप्न है । वास्तव में कामना और उसकी सफलता, तृप्ति और संतोष, भोग और शान्ति एक कल्पित शब्द-सृष्टि है । पाकेट से सिगरेट-केस निकालकर उसने एक सिगरेट होठों से दबा ली । दियासलाई जलाकर वह धूम्र-पान करने लगा । ओह ! विपिन का जो श्रानन सदा उल्लास-दोलित रहा है, आज कैसा विषण्ण और कैसा विवर्ण हो गया है ! मानो उसका अब तक का समस्त ज्ञान कोई वस्तु नहीं है, नितान्त क्षुद्र है वह । निकटवर्ती आकाश में धूम्र - शिखाओं के वारिद उड़ाता हुआ विपिन सोच रहा है - इस वीणा पर वह कितना विश्वास करता था ! वह मानने लगा था कि वह तो उसके हृदय की रानी है, मनोमन्दिर की देवी । मानो उसके प्रस्ताव की स्वीकारोक्ति का भी वह स्वयं ही अधिकारी है; उसका आत्म-विश्वास ही उसकी सिद्धि है, जवीन का चरम साफल्य । किन्तु — " उसने तो कल कह डाला - मैं ?.... मैं तो चाहती हूँ कि तुम मुझे भूल जात्रो, मुझसे घृणा करो । ४४ ..... क्योंकि तुम्हारी चरम कुत्सा ही मेरे जीवन की तृप्ति है— उसका एकमात्र अवलम्ब । मैं प्रेम नहीं जानती, प्रीति नहीं जानती । मैं नहीं जानती कि प्यार क्या चीज़ है ! विश्वास नहीं करती कि नारी के लिए स्वामी एक मात्र श्राश्रय है, आधार है । मैं तो नारी की स्वतन्त्र सत्ता पर I विश्वास रखती हूँ ।" कहते-कहते न तो उसकी चेष्टा में कहीं कोई संगति का लेश दृष्टिगत हुआ, न प्रकृत धारणा की-सी कोई प्रतीति । यही सब सोच-सोचकर विपिन दिन भर नितान्त विमूढ़सा, पराजित-सा बना रहा । उसकी मा ने पूछा - " आज तू कुछ उदास-सा क्यों देख पड़ता है ?" उसके पिता ने कहा - " क्या कुछ तीत खराब है ?" उसके अग्रज ने टोंक दिया- "बात क्या है रे विपिन कि आज तू मेरे साथ पेट भर खाना भी नहीं खा सका ?” उसकी भाभी चाय लेकर आई तब उसने लौटा दी । किन्तु वह इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ कह न सका । अपनी स्थिति के मर्म को उसने किसी को भी स्पर्श न करने दिया । दिन भर वह निश्चेष्ट बना रहा। किन्तु यह बात उस विपिन के लिए केवल एक दिन की तो थी नहीं। वह तो उसके जीवन की एक मात्र समस्या बन गई थी । अतएव अकर्मण्य बनकर वह कैसे रहता ? धीरे-धीरे उसने एक विचार स्थिर कर लिया । एक निश्चय में वह श्राबद्ध हो गया। वह यह समझने की चेष्टा में रहने लगा कि वीणा उसकी कोई नहीं थी । वह तो उसके लिए एक भ्रम मात्र थी - स्वप्न-सी अकल्पित, मृग-तृष्णा-सी ऐन्द्रजालिक । वह अकेला श्राया है और केला जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat है। लोग कहा करते हैं, मानव प्रकृति परिवर्तनशील लोग समझ बैठते हैं कि मनुष्य की आन्तरिक रूप www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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