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________________ सख्या १] . प्रायश्चित्त रेखा नहीं बदलती । संसार बदल जाता है, किन्तु मानवात्मा "कहो न, इतना सोच-विचार क्यों करते हो ?" की प्रेरणा सदा एकरस अक्षुण्ण रहती है। किन्तु इस विपिन कहते-कहते अत्यधिक अातुर हो उठा। प्रकार के निष्कर्ष निकालते समय लोग यह भूल जाते हैं रायसाहब का मुख म्लान पड़ गया। प्रतीत हुआ, कि मनुष्य की स्थिति वास्तव में है क्या ? जो सत्ता जैसे काई अवर्णनीय अतीत अपने समस्त कल्याण के जगत् के जन-जन के साथ समन्वित है, जिसकी चेतना साथ उनके उस अनुताप-दग्ध अानन पर मुद्रित हो और अनुभूति ही उसकी मूर्त अवस्था है, किसी के स्पर्श उठा है। और आघात के अनुषंग से उसका अपरिवर्जन कैसे उन्होंने कहा-"किन्तु मुझे कुछ कहना न होगा। सम्भव है ? सभी कुछ मैंने अपनी डायरी में लिख दिया है। मेरे विदा ___ दिन आये और गये। विपिन अब कलाविद् न रहकर हो जाने के बाद उसे देख लेना। मुझे विश्वास है कि दार्शनिक हो गया। उस समय जो कुछ तुमको उचित प्रतीत होगा वही मेरी [ २ ]. कामना और तुम्हारा कर्तव्य होगा। उसके पिता अत्यधिक बीमार थे । यहाँ तक कि उनके [ ३ ] जीवन की कोई अाशा न रह गई थी। वे रायसाहब थे। विपिन का जीवन पूर्ववत् चल रहा था। यद्यपि वीणा उन्होंने अपने जीवन में यथेष्ट सम्पत्ति और वैभव का के प्रति उसमें अब वह मदिर आकर्षण न था, तथापि अर्जन किय था। अपनी सदाशयता और विनयशीलता शिष्टाचार और साधारण कर्तव्य के जगत् में वह एक के कारण नगर भर में उनकी-सी सर्वाधिक प्रतिष्ठा का कहीं वीणा के प्रति ही नहीं; किसी के लिए भी अपने आपको किसी में सादृश्य न था। नित्य ही अनेक व्यक्ति उनके बदल न सका था। सभी से वह उसी प्रकार विहँसकर बातें दर्शन तथा मङ्गल-कामना प्रकट करने के लिए आते करता था। चटुल-हास में तो वह कहीं भी अपना सादृश्य रहते थे। न देख सकता था। वृद्धता में तो रायसाहब का अंग-अंग शिथिल-ध्वस्त यह सब कुछ था। किन्तु भीतर से विपिन अब कुछ हो रहा था; किन्तु मोतियाविन्द के कारण उनके नेत्रों की और था। उसकी स्थिति प्रस्तावक की न रहकर अब ज्योति अत्यन्त क्षीण हो गई थी। यहाँ तक कि वे अपने अनुमोदक की हो गई थी। वह स्थल-पद्म का एक शुष्कश्रात्मीय जनों का परिचय दृष्टि से ग्रहण न करके स्वर से दल-मात्र था। रंग वही था, सौरभ भी अमन्द था, प्राप्त करते थे। किन्तु मृदुल कोंपल की-सी स्पर्श-मोहक कमनीयता अब ____एक दिन की बात है। रात के अाठ बजे का समय उसमें कहाँ से होती है वह तो अब उसका इतिहास बन था। रायसाहब बोले-“कहाँ गया रे विपिन ?" गई थी। विपिन ने तुरन्त उत्तर दिया-"मैं यहाँ पास ही तो उस दिन के वार्तालाप के पश्चात् एक दिन साधारण बैठा हूँ बाबू । कहा, क्या कहते हो?" रूप से ही वीणा ने पूछ दिया-"मेरी उस दिन की बातों रायसाहब ने पूछा- “यहाँ और काई तो नहीं है ?” का तुम कुछ बुरा तो नहीं मान गये ?" .. "नहीं है और कोई बाबू । मैं यहाँ अकेला ही बैठा विपिन वृश्चिक-दंश के समान उत्क्लेश-ध्वस्त होकर हूँ।" विपिन ने उत्तर दिया। रह गया। बड़ी चतुरता के साथ अपनी स्थिति की रक्षा __"एक बात कहने को रह गई है। उसे और किसी करते हुए उसने उत्तर दिया - "बुरा क्यों मानूँगा वीणा ? को न बतलाकर तुझको बतलाना चाहता हूँ। बात यह बुरा मानने की उसमें बात ही क्या थी ? वह तो अपने-अपने है कि तू थिंकर है, चिन्तक । तेरी आत्मा में मेरा सारा निजत्व की बात है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ अपने विचार रखता प्रतिनिधित्व आलोकित है। मुझे विश्वास है कि तू मेरी है, उसके कुछ अपने सिद्धान्त होते हैं। तुम भी यदि उस बात को स्थायी रूप से ग्रहण करेगा।" रायसाहब ने अपने कुछ सिद्धान्त रखती हो तो इसमें मेरे या किसी के अटूट विश्वास के साथ अधिकार-पूर्वक दृढ़ होकर कहा। भी बुरा मानने की क्या बात हो सकती है ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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