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सरस्वती
[भाग ३८
प्रेम, अपने शैशवकाल में, सब कुछ दे देना और था ? लिखने की मनःस्थिति ! ' महज बहानाबाजी ! पाना चाहता है। इस सम्पूर्ण समर्पण के मध्य के स्वर्ण- लिखने का जिसे अभ्यास हो, जो नित्य लिखता हो, वह मार्ग से वह सर्वथा अपरिचित होता है। ठोकरें खाकर, जब चाहे कलम उठाकर लिख सकता है। वह आना नहीं प्रौढ़ होकर जब वह अधिक देने और कम या कुछ न पाने चाहता था, इसलिए एक बहाना पेश कर दिया। प्यार की कामना रखने के औचित्य को समझ लेता है, तभी जब दिल से उठ गया तब अवहेलना के सिवा काई क्या वह प्रोजस्वी, पावन तथा निष्कलंक बन पाता है। परि- दे सकता है ? ऐसा परिवर्तन उसमें कैसे हो गया ? उसने वर्तन-काल के कंटकाकीर्ण पथ पर अज्ञात रूप से चलते तो कोई अपराध नहीं किया। वह तो उसे अब भी उतना हुए अाशा और रमेश पहली अवस्था से दूसरी अवस्था ही चाहती है जितना पहले चाहती थी। फिर, पग-पग वह की अोर धीरे-धीरे बढ रहे थे-उस अवस्था की ओर जो उसका तिरस्कार क्यों करता है ? क्या वह किसी दसरी स्त्री उन्हें जीवन तथा संसार को उनके वास्तविक रूप में देखने को चाहने लगा है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उसके और समझने की क्षमता प्रदान करने को थी। तब इसमें जान में तो उसकी कोई स्त्री मित्र न थी। क्या उसने कभी अाश्चर्य की कोई बात नहीं कि वे विकल थे, अशान्त थे, सच्चे दिल से उसे प्यार नहीं किया ? कौन जाने ? अंधकार में भटक रहे थे।
सहसा, उसने देखा, दो सजे-धजे युवक उस ओर
खड़े हुए उसे घूर रहे थे। वे कौन हैं ? वह तो उन्हें नहीं आशा का मोटर रीजेंट थियेटर के सामने पहुँचकर जानती। फिर, वे उसे क्यों घूर रहे हैं ? पुरुष स्त्रियों को रुका। पहले शो के शुरू होने में अभी बहुत देर थी। क्यों घूरते हैं ? "स्त्रियाँ पूरी जाना पसन्द करती हैं", रमेश कार से उतरकर वह बरामदे में पहुंची। इतमीनान से ने एक बार मजाक में कहा था, "इसी लिए मर्द उन्हें इधर-उधर घूमते हुए दो-चार थियेटर के कर्मचारियों के घूरते हैं !” स्त्री-जाति के प्रति ये कैसे अपमानजनक वाक्य अतिरिक्त वहाँ और कोई न था। रेस्तराँ के दरवाजे खुले हैं और मर्दो की बुरी आदत की कैसी झूठी सफ़ाई है ! थे और अन्दर एक मेज के सामने बैठा हुआ एक गोरा उस समय वह हँस पड़ी थी, लेकिन आज तो उसे हँसी सैनिक चाय पी रहा था। बोर्ड के समीप जाकर वह उस नहीं आती। कम से कम वह तो घूरी जाना पसन्द नहीं पर लगे हुए फोटो देखने लगी। उन चित्रों में 'डेविड करती। फिर, वे असभ्य युवक उसे क्यों घूर रहे हैं ? कापरफ़ील्ड' के अनेक मार्मिक दृश्य अंकित थे, किन्तु उन्हें कदाचित् वे भी अपनी स्त्रियों से घृणा करते हैं । वह पुरुष देखने में उसका मन न लगा।
जो अपनी स्त्री से प्रेम करता है, शायद किसी दूसरी स्त्री की तब वह दूसरे बरामदे में चली गई और विचारों में अोर देखना पसंद न करेगा। क्या यह सत्य है ? कदाचित् डूबी हुई धीरे-धीरे टहलने लगी। अकेलेपन का विकल है, कदाचित् नहीं। मर्द कितने स्वार्थी होते हैं, कितने भाव उसके हृदय में व्याप्त था। मस्तिष्क में भी उसे ऐसा बेवफ़ा ! खीझकर वह अपने कार के समीप गई, और जान पड़ता जैसे इस विराट विश्व में उसका कोई न था। उसमें बैठ गई। रमेश क्या उसे अब नहीं चाहता ? बिलकुल नहीं चाहता, "बेनी! मेरे लिए टिकट खरीद लाभो।" पाँच रुपये यह तो स्पष्ट ही है। उसके प्रेम में वह उष्णता, वह का एक नोट उसने शोफ़र की ओर बढ़ा दिया। स्निग्धता कहाँ है जो पहले थी और जिसे वह पसंद करती "बहुत अच्छा , हुजूर ।" नोट लेकर वह चला थी। उसके पास पहुँचने पर अब तो उसे ऐसा जान गया । पड़ता था, मानो वह किसी हिमाच्छादित पर्वत के समीप ये लोग आखिर कब खेल शुरू करेंगे ? तबीअत हो । उसकी छोटी से छोटी इच्छा पहले उसके लिए मान्य कितनी ऊब रही है ! जल्दी आ जाना कितना बुरा हुआ ! होती थी, किन्तु अब तो उसकी किसी इच्छा की उसे ज़रा यह भी रमेश के कारण । अगर वह थाने से इनकार न भी परवा नहीं। अगर वह पाना चाहता तो क्या करता तो वह इतनी जल्दी क्यों आती? वह कितना थोड़ी देर के लिए लिखाई बन्द करके यहाँ नहीं आ सकता समझदार है ! वह जो कुछ कहता है तोलकर कहता है,
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