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संख्या १ ]
नमें भी जागृत नहीं हुई । पक्षपाती शास्त्रकारों ने प्रौर जुल्मी हिन्दू-समाज ने स्त्रियों को सदा दबाये रखने के लिए सूत्रावली की जो नाग पाश डाली है वह अभी नहीं पड़ी है ।
दूसरा वर्ग कहेगा कि स्त्री जागी है ।
कोई कुमारी साइकिल पर सवार होकर कालेज जाती तो कोई युवती खुद मोटर चलाती है। कोई युवती चूड़ी, कुंकुम तथा लंबे केशों का परित्याग करके बोन्डहेर
बहुत सी पिनें लगाकर हाथ में काग़ज़ों का बंडल लेकर प्राफ़िस में जाती है तो कोई रेकेट लेकर टेनिस ग्राउंड की तरफ़ | कोई अपनी दशा के लिए पुरुषों को गालियाँ देती है या मिथ्या दोषारोपण से भरे हुए नये नये लेख लिखती कोई स्त्रियों के प्रति होनेवाले अन्याय के विरुद्ध व्याख्यान - मंच पर खड़ी होकर रोप की वर्षा करती हैं। पहले प्रकार के जवाब के नीचे ये दृश्य तैर रहे हैं । इसलिए सुधारक ग्रानन्दित होते हैं । किन्तु इस श्रानन्द के पीछे
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सन्तोप की वेदना है । वेदना इसलिए है कि ऐसी स्त्री ने पांच-दस या सौ-दो सौ की संख्या में यह दृश्य देखने की इच्छा नहीं रक्खी थी, बल्कि हज़ारों या लाखों की संख्या में
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भोली लेकर चन्दा वसूल करती हुई, शराब या विदेशी वस्त्रों पर पिकेटिंग करती हुई, सरकस में जाती और स्त्रियों पर लाठी चले ऐसी आशा होने पर भी पड़ती हुई लाठी को रोक लेना, अगुवा बनना, ऐसी ऐसी स्त्रियों की प्रवृत्तियों पर दृष्टि स्थिर कर दूसरा वर्ग इसका उत्तर देता है ।
जाग्रत नारियाँ
ऊपर आलेखित चित्रों से ये दूसरे चित्र अवश्य भक्तिभाव-पूर्ण हैं । फिर भी इस पर से बड़ी लम्बी आकृति खींच कर स्त्री-समाज जागा हैं, यह नहीं कहा जा सकता । फिर भी ये चित्र स्त्री- विकास की ख़ासी मधुर रेखा तो अवश्य हैं । किन्तु जो विकासोन्नति के भव्य दर्शन के लिए यत्न कर रहे हैं उन्हें कुछ अधिक देखना हैचों और मनःचक्षुओं को शारीरिक और आध्यात्मिक तेज । जो हिताहित की दृष्टि से माप निकालते हैं वे भी यही देखने की इच्छा रखते हैं ।
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[कुमारी शान्ता श्रमलादी (बम्बई ) । ये संगीत-फला में बड़ी निपुण हैं और इनका कंठ बहुत ही मधुर है ।]
जागृति का असर भी नहीं दीखता । अभी वही अज्ञानता, वही निर्बलता और वही की वही मनोदशा है। इसका नाश अवश्य होगा। अभी तो नहीं हुआ है। सुधारक इस विषय के लिए बहुत कम विचार करते हैं। यदि इस विषय को महत्त्व न दें तो भी उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती । पुरुषों के सामने थोड़े ही अन्तर के बाद तिरस्कार में परिवर्तन प्राप्त हुआ है। पुरुष को हृदयहीन, ज़ालिम के तौर पर देखने की प्रवृत्ति, द्रव्योपार्जन की व्यवस्था, इन सबको लक्ष्य के तौर पर गिननेवाली स्त्री रसोई का जीवन जीवन को घबरानेवाला माने, सेवा में गुलामी माने, शर्म में निर्बलता का अनुभव करे, शिशुपालन में अत्याचार समझे, यह सब क्या उन्नतिकारक है ? इससे क्या आर्यावर्त्त का उत्कर्ष होगा ?
ऐसे सुधार की लहर के बाद के सुधार में (गांधीयुग के सुधार में कुछ सङ्गीनता और गम्भीरता श्राई ।
बेशक स्त्रियाँ जागृत हुई हैं, किन्तु जागृति की चेतना स्वार्थी और पक्षपाती विचार - प्रवाह में गम्भीरता ने मानवभी स्त्री समाज में नहीं फैली है । कर्तव्य की और हिताहित की विचारणा के तत्त्वों को स्त्री-समाज का बड़ा बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जहाँ बढ़ाया। इसने शब्द- बल को कार्य बल में परिणत किया ।
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