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________________ संख्या ६] हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो ५७५ हिन्दुस्तान के शहराती और देहाती लोग मिलकर बोलते नहीं। गांव में भी लोग नज़र सानी, अमर तंकीह, मुद्दई, हैं और जो सबों की समझ में बड़ी आसानी से आ सकती मुद्दा अलह श्रादि बोलने लगे हैं। यह क्यों ? केवल इसहै उसी को हम भारत की राष्ट्र-भाषा-हिन्दुस्तान की लिए कि उन पर ये शब्द ढूंसे गये हैं। पंजाब की कन्याकौमी ज़बान मानेंगे। हम अपनी राष्ट्र-भाषा को पण्डितों पाठशालाओं में, विशेषतः आर्य-समाज और सनातन-धर्म और मौलवियों की तरह संस्कृत या अरबी-फारसी के शब्दों की पुत्री-पाठशालाओं में, जो हिन्दी पढ़ाई जाती है वह शुद्ध से लादना नहीं चाहते ".........इस सम्बन्ध में मेरा संस्कृतानुगामिनी हिन्दी है। इसलिए उन पाठशालाओं निवेदन है कि यदि 'जज़बात, ख़यालात, वाकयात, की पढ़ी लड़कियों को "नेस्तोनाबूद, मयस्सर, लबालब, फिरकापरस्ती' आदि शब्दों को श्राप बुरा नहीं समझते इशतियाक, ख़ुद-ब-खुद' आदि शब्द ऐसे ही अपरिचित तो फिर मौलवी लोग और कौन-सी भाषा लिखते हैं ? जान पड़ते हैं, जैसे चीनी या जापानी शब्द । अरबी-फारसी को संस्कृत के बराबर का स्थान देना परन्तु राष्ट्र-भाषा के नाम पर यह कड़वा घूट उन्हें बड़ा भारी अन्याय है। संस्कृत का भारतीयों पर निगलना पड़ेगा। इसी प्रकार हैदराबाद (दक्षिण) विशेष अधिकार है। उसकी रक्षा और प्रचार हमारा की प्रायः नब्बे प्रति सैकड़ा जनता हिन्दू है। उसमें तेलगू, परम कर्तव्य है। यदि भारतीय उसकी रक्षा नहीं करेंगे तामिल, कनारी और मराठी बोलनेवाले हैं। उनके लिए तो और कौन करेगा ? इसका जितना अधिक प्रचार होगा, अरबी-फ़ारसी के शब्दों का शुद्धोच्चारण करना भी कठिन भारतीय भाषाओं में उतनी ही अधिक एकता स्थापित है। परन्तु निज़ाम साहब ने वहाँ की राजा-भाषा उर्दू होगी। यह कहना ठीक नहीं कि कोई नई भाषा नहीं बनाकर और उस्मानिया-विश्वविद्यालय स्थापित कर बनाई जा रही है । मैं कहता हूँ, बड़े यत्नपूर्वक बनाई जा वहाँ की भाषा ही बदल दी है । जो उर्दू हैदराबाद के रही है। आज से पच्चीस वर्ष पहले से लेकर आज तक हिन्दुत्रों के पूर्वजों के लिए चीनी या लातीनी के समान हिन्दी में जितनी पुस्तके या पत्रिकायें छपी हैं उनमें से अपरिचित थी वही अब राज्य के प्रचार से उनकी मातृकिसी की भी भाषा वैसी नहीं, जैसी आज काका कालेलकर भाषा-सी बनती जा रही है। सेो यह तो यत्न और प्रचार जी की मंडली बनाने जा रही है या जैसी 'मेरी कहानी' की बात है । इंग्लैंड में थैकरे आदि के समय में जनता एवं 'हरिजन-सेवक' में देखने को मिलती है। पंजाब में फ्रेंच और लातीनी शब्दों और वाक्यों का लिखना और सिख गुरुओं के समय में जैसी भाषा बोली जाती थी, बोलना एक बड़ी मान प्रतिष्ठा की बात समझती थी। उसका नमूना गुरुत्रों की वाणी में मिलता है। गुरु तेग. परन्तु तत्पश्चात् स्वदेश-प्रेमी अँगरेज़ लेखकों ने उन बहादुर का एक पद है सब शब्दों और वाक्यों को दूध में से मक्खी की भाँति काहे रे वन खोजन जाई । निकाल कर बाहर फेंक दिया। सर्व-निवासी सदा अलोपा, तोहि संग समाई। जिस वस्तु को मनुष्य अपने लिए उपयोगी समझकर पुहुप मध्य जिमि बास बसत है, मुकुर माँहि जस छाई। स्वेच्छापूर्वक खाता है वह पचकर उसके शरीर का अंग तैसे ही हरि बसै निरन्तर, घर ही खोजहुँ जाई। बन जाती है और उससे उसकी देह पुष्ट होती है। इसके बाहर भीतर एकै जानहुँ, यह गुरु ज्ञान बताई। विपरीत जो वस्तु बलात् अनिच्छापूर्वक उसके भीतर दूँसी जन नानक बिन अापे चीन्हें, मिटे न भ्रम की काई ।। जाती है वह विजातीय द्रव्य उसे. हानि करता है। नीरोग इससे सरल हिन्दी और क्या हो सकती है। परन्तु जब से शरीर पर जब रोग के विजातीय कीड़े अाक्रमण करते हैं पंजाब में अदालत की भाषा उर्दू हुई है और जब से तब शरीर उनको मार कर भगा देता है, वे उस पर पंजाब के सभी सरकारी स्कूलों में उर्दू ही शिक्षा का अधिकार नहीं पा सकते । परन्तु जब शरीर निर्बल हो जाता माध्यम बना दी गई है तब से गुरु-वाणी को समझने- है तब वे कीड़े उसमें घर बना लेते हैं और उसकी नाक, वालों का अभाव-सा हो गया है। अब पंजाब की कांग्रेसी मुँह आदि के मार्ग से वैसे के वैसे निकलने लगते स्त्रियाँ ‘इन्कलाब जिन्दाबाद' कहती हैं, 'क्रान्ति की जय ! हैं। यही दशा किसी जाति की है। बलवान् जाति तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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