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________________ ५७४ सरस्वती उपर्युक्त लेख में अँगरेज़ी, मराठी एवं गुजराती का तो कदाचित् एक भी शब्द नहीं, भरमार है केवल चरबी - फ़ारसी के शब्दों की । जैसे कि हरगिज़, नेस्तोनाबूद मदद, तसफ़िया, तंगदिली, फ़िरकापरस्ती, ज़रिए, अँगरेज़ीदाँ, ख़तरनाक, चुनांचे, ग्रामफ़हम, फ़ारसी रस्म ख़त, ख़ानदान, दरमियान, हरूफ़, अजीबो गरीब, हङ्गामा, बुज़ुर्ग । इससे विदित होता है कि हिन्दी का राष्ट्र-भाषा बनाने का एक मात्र साधन ये सज्जन उसमें अरबी और फ़ारसी के मोटे-मोटे शब्दों को घुसेड़ना ही समझते हैं । कदाचित् उनको आशा है कि इससे मुसलमान प्रसन्न होकर हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि को अपनायेंगे परन्तु मुझे तो उनकी यह श्राशा दुराशामात्र ही जान पड़ती है । 1 मैं दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने के विरुद्ध नहीं । इनसे हमारी भाषा का शब्द - भाण्डार बढ़ता है । परन्तु हमें केवल वही शब्द लेने चाहिए जिनके भाव को प्रकट करनेवाले शब्द हमारी भाषा में न हों । 'यदि' के रहते 'इफ' और 'अगर ' को लेना; 'विचारों, भावों औौर घटनात्रों' के रहते 'खयालात, जज़बात और वाकयात' लिखना, 'अक्षर, चित्र-विचित्र, और लिपि' को छोड़कर ' हरूफ, अजीबो गरीब और रस्म ख़त का प्रयोग करना सर्वथा अनावश्यक बरन हानिकारक है । यह हिन्दी पढ़नेवाले बच्चों पर अत्याचार है। मुझे यू० पी० का पता नहीं, परन्तु मैं निश्चय के साथ कह सकता हूँ कि पंजाब के स्कूलों की लड़कियाँ इन फ़ारसी अरबी शब्दों को बिलकुल नहीं समझतीं । इन अनावश्यक शब्दों को लेना भाषा के भाडार को रत्नों के स्थान में घास-फूस और कूड़ा-करकट से भरने की व्यर्थ चेष्टा करना है । मानव जीवन केवल बहुत-से शब्द सीखने के लिए ही नहीं। शब्द तो मानसिक विकास का साधन मात्र हैं । काका कालेलकर कहते हैं कि "राष्ट्र भाषा का नाम शिक्षा और संस्कृति से सम्बन्ध रखता है। इसका सम्बन्ध न तो किसी क़िस्म की राजनीति से है और न किसी धर्म या संप्रदाय से ।” काका जी की बात को मानकर भी मैं पूछता हूँ कि इस प्रकार के विदेशी भाषाओं के शब्द घुसेड़ने से शिक्षा या संस्कृति को क्या लाभ पहुँचता है ? जज़बात की जगह यदि भावना लिख दिया जाय तो शिक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भांग ३८ में कौन कठिनाई आ जाती है ? बच्चे के मस्तिष्क में बहुत से विदेशी पर्यायवाची शब्द हँसने से उसके बौद्धिक विकास में क्या सहायता मिलती है ? भाषा का संस्कृति के साथ सम्बन्ध मैं स्वीकार करता हूँ । इसी लिए मैं इन अनावश्यक शब्दों को लेने के पक्ष में नहीं । अरब की और फ़ारस की अपनी-अपनी संस्कृतियाँ हैं। उनकी भाषाओं के शब्द उन संस्कृतियों के भावों को प्रकट करते हैं। भारत की, विशेषतः यहाँ के हिन्दुत्रों की, अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है । उसके भाव संस्कृत और हमारी प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों में भरे हुए हैं । 'धर्म' शब्द जिस भाव का द्योतक है, 'मज़हब' उसको नहीं दिखलाता । अरबी और फ़ारसी संस्कृति एवं भाषा की रक्षा अरब और फ़ारस कर रहा है । उनकी रक्षा की चिन्ता भारतीयों को नहीं होनी चाहिए। हमें तो अपने धर्म, पनी भाषा और अपनी संस्कृति की रक्षा की श्रावश्यकता है । सो हिन्दी का राष्ट्र-भाषा बनाने या भारत की सबकी समझ में आ जानेवाली भाषा बनाने के बहाने संस्कृतशब्दों को कठिन या पण्डिताऊ बताकर उनका जो बहिष्कार किया जा रहा है इससे संस्कृत भाषा और भारतीय सभ्यता की घोर हानि होने की आशंका है । इस समय भारत में कहीं भी संस्कृत नहीं बोली जाती । फिर भी यहाँ की सभी भाषायें अपना शब्द - भाण्डार संस्कृत से ही भरती हैं। संस्कृत सभी प्रान्तीय भाषाओं को एकता के सूत्र में बाँधनेवाला सूत्र है । यदि यह बात नहीं तो क्या कारण है कि एक हिन्दू के लिए संस्कृत सीखना जितना सुगम है, उतना एक अरब - निवासी के लिए नहीं ? संस्कृत शब्दों का प्रचार बंद हो जाने से हिन्दुत्रों के लिए भी संस्कृत ग्रंथों का पढ़ना उतना ही कठिन हो जायगा जितना कि अरबों या तुक के लिए है । ऐसी अवस्था में हमारे प्राचीन साहित्य, इतिहास, संस्कृति, धर्म और पूर्वजों से हमारा सम्बन्धविच्छेद हो जायगा, जैसे उर्दू-फारसी पढ़नेवाले भारतीय मुसलमानों का राम कृष्ण आदि महापुरुषों और आर्यसंस्कृति से हो चुका है । यदि भारत में भारतीय भाषा और संस्कृति की रक्षा न होगी तो फिर और कहाँ होगी ? - काका कालेलकर कहते हैं- "हम अपने यहाँ कोई नई भाषा नहीं बनाने जा रहे हैं। जिस भाषा को उत्तर www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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