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ईर्ष्या और प्रतिशोध की आग में जलने- वाले एक पहाड़ी युवक की कहानी
बदरी
लेखक, श्रीयुत उपेन्द्रनाथ 'अश्क', बी० ए०, एल-एल० बी०
स प्रकार वर्षा का पहला छींटा पड़ते आँसू छलक रहे थे; पति पत्नी से मुसकराता हुआ विदा ले ही पहाड़ी नालों में जीवन जाग रहा था, पर सीने पर पत्थर रखे हुए, और स्त्रियाँ रोती उठता है और वे उत्फुल्ल होकर थीं, तो भी प्रसन्न थीं कि उनके पुरुष उनके लिए ही सुख
बह निकलते हैं, उसी भाँति शिमला का सामान जुटाने जा रहे हैं। पहाड़ी युवतियों की आँखों g का मौसम शुरू होते ही पहाड़ी से आँसू प्रवाहित थे, पर दिल खुश थे कि यह कुछ दिनों
पगडंडियों में जान पड़ जाती है। की जुदाई स्थायी प्रसन्नता साथ लायेगी। उनके प्रेमी पहाड़ी लोग पुरानी पगडंडियों को उनका अस्तित्व वापस इतना धन जमा कर लेंगे कि उनके मा-बाप से उन्हें माँग देते, नई लीके निकालते, शिमला की आबादी बढ़ाने सके । बच्चों को भी इसी तरह का कुछ धैर्य था। मचलना लगते हैं। इन दिनों शिमले में यौवन श्रा जाता है; चाहते थे, रोने के लिए उतावले हो रहे थे, पर ओंठों को शिशिर के हिम से सिकुड़ा हुआ नगर अप्रैल-मई की सिये हुए चुपके से, क्योंकि यदि वे रोयेंगे तो उनके पिता जीवनदायिनी धूप से खिल उठता है । परन्तु जहाँ इस उनके लिए खिलौने न लायेंगे । जो भी रोयेगा, मिलाई मौसम में शिमले में उल्लास खेलता है, वहाँ पहाड़ी देहात और खिलौनों से वंचित रह जायगा। में उदासी छा जाती है। पहाड़ के युवक रोटी कमाने की शोली खाली हो रहा था। कल बिरजू गया, आज धुन में शिमले को चल पड़ते हैं, पिता-पुत्र, भाई-बहन, पिरथू गया। सब जा रहे थे। केवल वे ही घर पर थे जिनके प्रियतम-प्रेयसी एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं। देहात की शरीर में मेहनत-मजदूरी करने की शक्ति न रह गई थी रूह इनके साथ ही चली जाती है, शिमले का जीवन या वे जिनकी घर पर आवश्यकता थी। नहीं तो सब पहले इसकी मृत्यु बन जाता है।
पहले अच्छी जगह प्राप्त करने के विचार से भागे जा रहे अप्रैल का शुरू था। मैदान की गर्मियों से बचने के थे। केवल बदरी अभी तक पहाड़ी पगडण्डियों पर ही भटलिए शिमले की ठंडी और अनुरंजनकारी फ़िज़ा में पनाह कता दिखाई देता था। या नहीं गया था कांशी । वह भी लेनेवाले सरकारी दफ्तरों का आगमन प्रारम्भ हो गया अभी तक गाँव में ही मारा मारा फिर रहा था। था। चारों ओर जीवन के आसार दिखाई देने लगे थे, अपने रिश्तेदारों की नज़रों में वे दोनों बेकार घूम रहे मानो मृतक में फिर से जान पड़ गई हो।
थे। परंतु वे बेकार न थे, मुहब्बत के मैदान में घोड़े दौड़ा रहे शोली के गरीब पहाड़ी भी अपने सम्बन्धियों से जुदा थे । गत वर्ष बदरी बाज़ी ले गया था और अब की कांशी। होकर अागामी शीत के लिए कुछ धनोपार्जन करने जा रहे बदरी घायल साँप की भाँति कुंकार रहा था और थे, लेकिन अकेले शिमला में कुटुम्ब कहाँ साथ जा कांशी विजयी योद्धा की भाँति जामे में फूला न समाता सकता है ? वहाँ का किराया ही इस बात को इजाज़त नहीं था। एक की दुनिया
की नरक! देता। पुरुष तो खैर कहीं पड़कर ही काट लेंगे। पर स्त्रियाँ और बच्चे ! उनके लिए तो घर चाहिए। इसी लिए ऊँची ऊँची पहाड़ियों के दामन में नाला शोर करता सब भरे दिलों के साथ जुदा हो रहे थे। बाप अपने बच्चों हुआ बह रहा था, मानो अपने देवताओं के चरण धोकर को हँस हँसकर प्यार करता था, पर उसकी आँखों में जन्म सफल कर रहा हो । इधर-उधर फैली हुई झोंपड़ियाँ
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