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________________ २२० सरस्वती [भाग ३८ सुरजनमल ने अपने बिखरे हुए साहस को जमा करके 'मेरी राय में तो साधारण बात है।" कहा-"तुम आज तक कहाँ सोये हुए थे ? अगर पहले सुरजनमल-"तुम्हारी राय में होगी, मेरी राय में कहते तो मुझे ज़रा भी आपत्ति न होती। उसी समय नहीं है। दिखा देता। मगर अब तो मुहूर्त भी नियत हो गया, दीनानाथ — “एक बार फिर सोच लीजिए।" बरात भी आ गई, सारा प्रबन्ध हो गया। इस समय तीन सुरजनमल—“बेटा ! क्या बावलों की-सी बातें करते बजे हैं, अाठ बजे ब्याह है। अब क्या हो सकता हो ? ज़रा अपने आपको मेरी स्थिति में रखकर देखो है ? मान लो, मैंने तुम्हें लड़की दिखा दी और तुमने उसे और फिर बतायो । अगर तुम्हारी बहन का ब्याह हो तो अस्वीकार कर दिया तो क्या ब्याह रुक जायगा ? तुम तुम क्या करो ?” कहोगे, इसमें हज ही क्या है । तुम्हारे । दीनानाथ–“मैं तो दिखा दूं।" लिए न होगा, हमारी तो नाक कट जायगी। सुरजनमल--"शायद इसका यह इसलिए यह बचपन छोड़ो और चुपचाप कारण हो कि मैं उस कालेज में नहीं पढ़ा, जनवासे को लौट जाओ।" जहाँ तुम पढ़े हो । मुझे दुनिया का भी मगर दीनानाथ पर इस बात का ज़रा मुँह रखना पड़ता है।" भी प्रभाव न पड़ा, रुखाई से बोला दीनानाथ-"तब बहुत अच्छा मैं ! भी आपको अंधकार में नहीं रखना चाहता। मैंने निश्चय कर लिया है कि चाहे इधर की दुनिया एकाएक उषा देवी अपनी कुसी से उठकर खड़ी हो गई और बोली-"मगर मुझे तुम पसन्द नहीं हो।"
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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