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________________ संख्या ३] कलयुग नहीं करयुग है यह ! २१५ हो गई और हाँफते हुए बोली-“दीनानाथ आपसे मिलने दीनानाथ कुछ देर चुपचाप खड़ा सोचता रहा कि ये आया है।" तो बिलकुल सड़े हुए ख़याल के आदमी निकले । वर्ना सुरजनमल ज़रा न समझे, कौन दीनानाथ । उन्होंने इतना भी क्या था कि मुझे घर के अन्दर ले जाते हुए बेपरवाई से हुक्के का धुआँ हवा में छोड़ा और पूछा- भी डरते । जैसे इस समय मैं बाघ हूँ, दो घड़ी के बाद "कौन दीनानाथ ?" आदमी बन जाऊँगा । दुनिया सैकड़ों और हज़ारों कोस ___ जमना ने पति की तरफ़ अचरज-भरी आँखों से देखा, आगे निकल गई है, ये महात्मा अभी तक वहीं पड़े करवटें और जवाब दिया- "अब यह भी पूछने की बात है। यह बदल रहे हैं। वह समझता था, ससुर बड़ा आदमी है, देख लीजिए ।" यह कहते कहते उसने आगन्तुक के नाम हज़ार रुपया वेतन पाता है, अँगरेज़ी लिबास पहनता है, का कार्ड पति के हाथ में दे दिया और स्वयं पास पड़ी हुई साहब लोगों से मिलता-जुलता है, ज़रूर स्वतंत्र विचारों कुर्सी पर बैठ गई। का अादमी होगा। मगर यहाँ पाया तब एक ही बात ने सुरजनमल ने कार्ड देखा, तो ज़रा चौंके, और हुक्के सारी अाशा तह करके रख दी। दीनानाथ जो कहना की नली परे हटाकर बोले-"इसका क्या मतलब ? ब्याह चाहता था वह गले में अटकता हुअा, ज़बान पर रुकता से पहले वह मेरे घर में कैसे आ सकता है ?" हुआ, होंठों पर जमता हुअा मालूम हुआ। जमना ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा-"क्या कहूँ, सुरजनमल ने फिर कहा-"मालूम होता है, कोई मुझे तो कुछ और ही सन्देह हो रहा है।" ऐसी बात है जिसे कहते हुए भी हिचकिचाते हो। मगर ___लाला सुरजनमल उठकर खड़े हो गये और बाहर जब यहाँ तक चले आये हो तब अब कह भी डालो। तुम जाते जाते बोले- 'तुम तो ज़रा ज़रा-सी बात में घबरा संकोच करते हो, मेरे मन में हौल उठता है। जाती हो । इतना भी नहीं समझतीं कि आज-कल के लड़के दीनानाथ ने रुक रुककर जवाब दिया- "मैं लड़की अपनी रीत-रस्में नहीं जानते। विलायत से आया है। समझता देखने आया हूँ।" होगा, यहाँ भी वैसी ही आज़ादी है। मिलने के लिए चला सुरजनमल के सिर पर मानो किसी ने कुल्हाड़ा मार आया। उसकी बला जाने कि यहाँ ब्याह से पहले ससुराल दिया। दो मिनट तक तो उनके मुँह से बात ही न निकल में जाना बुरा माना जाता है।" सकी। वे दीवार से एक फुट के फ़ासिले पर खड़े थे। यह यह कहकर वे लपके हुए बाहर आये । दरवाज़े पर सुनकर दीवार के साथ लग गये, मानो अब उनमें खड़े दीनानाथ खड़ा था। सुरजनमल को देखते ही उसने सिर रहने का भी बल न था। मुँह पर हवाइयाँ ऐसे उड़ रही से अँगरेज़ी टोपी उतारी और हाथ बाँध कर नमस्ते किया। थीं, जैसे अभी भूमि पर गिर पड़ेंगे। सुरजनमल ने नमस्ते का जवाब देकर अपना हाथ दीनानाथ ने घाव पर मरहम लगाते हुए कहा-"मैंने उसके कन्धे पर रक्खा और धीरे से कहा-"बेटा! लड़की की बहुत प्रशंसा सुनी है। मेरी भाभी का कहना क्या करूँ ? समाज के नियम मुझे अाज्ञा नहीं देते कि है कि ऐसी बहू हमारे कुल में आज तक नहीं आई । तुम्हें ब्याह से पहले घर के अन्दर ले चलूँ , इसलिए मैं भी बाबू जी उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते। मगर फिर भी बाहर चला आया। कहो, कैसे आये। कोई विशेष बात आप जानते हैं, अपनी अपनी आँख है, अपनी अपनी तो नहीं ?" पसन्द । कल को अगर न बने तो दोनों का जीवन नष्ट ____ दीनानाथ ने जेब से रेशमी रूमाल निकालकर अपना हो जाय । ऐसे दृष्टान्त हमारे शहर में सैकड़ों हैं । इधर मुँह पोंछा और जवाब दिया- "बात तो विशेष ही है, वर्ना लड़के अपने प्रारब्ध को रो रहे हैं, उधर लड़कियाँ अपने मैं आपको कष्ट न देता। वैसे बात मामूली है । कम-से-कम बाप के घर बैठी हैं । इसलिए मेरा तो ख़याल है कि आदमी मैं उसे मामूली ही समझता हूँ।" पहले सोच ले, ताकि पीछे हाथ न मलना पड़े। और , सुरजनमल कुछ चिन्तित-से हो गये -"तो भई ! इसमें कोई हर्ज भी तो नहीं। हर्ज तब था, जब पर्दे की जल्दी कह डालो । मुझे उलझन होती है।" प्रथा थी। अब पर्दा कहाँ ?" Sifree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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