SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३३४ 'सरस्वती [भाग ३८ - . दच्छिना दीजिए । कर दिया न मैंने आपको अच्छा ? ज्योतिषी जी-आप अच्छे हो गये, यह तो मैंने मन्दिर .. है न मेरे लोटे में करामात ? __ में जप करते समय ही जान लिया था। . लम्बोदर-करामात इस लोटे में. नहीं, इस लोटे में थी लम्बोदर-मरा रे ! चौथी ओर भागता है, उधर से अोझा जी ! [फागुन के हाथ से लोटा ले लेता है ।] वैद्य जी आते हैं। इसी की बदौलत मैं बीमार हुआ और इसी ने मुझे वैद्य जी-ठीक हो गये सेठ जी! यह मेरी दवा अच्छा कर दिया। [मालिनी से] चल चूल्हे की का ही असर है। अब हमारी पूजा में कोर-कसर लकड़ियाँ सँभाल, खाना तैयार कर । मुझे बड़ी भूख न हो। लगी है। लम्बोदर-हा! हा! हा! हा! अरे कैसी फीस और कैसी मालिनी अन्दर जाती है । फागुन भी अोझा और दक्षिणा ? कैसा बिल और कैसा मेहनताना ? यह लम्बोदर के हाथ के लोटे लेकर मालिनी का अनुसरण गरीब लम्बोदर कभी बीमार ही नहीं हुअा। वह तो करता है। बात ऐसी हुई कि रात को मेरी स्त्री ने जिस लोटे में श्रोझा जी-ब्राहाण का पैसा हजम नहीं होगा सेठ जी। फिर गेरू घोल दी थी, सुबह मैं उसे पानी समझकर बीमार पड़ गये तो शौच को उठा ले गया। वहाँ जब मैंने गेरू को लम्बोदर-जाइए, इस समय जाइए। [एक अोर को ज़मीन पर बिखरा. पाया तब धुंधली रोशनी में मैंने उसे जाना चाहता है, उधर से डाक्टर पाता है। खन समझा और बीमार पड़ गया। अब जब भेद डॉक्टर–किधर जाइए ? बिना आपरेशन के ही अच्छा खुला तब मुझे मजबूर होकर अच्छा हो जाना पड़ा। कर दिया, अब किधर जाइए । लो, यह है दवा के फिर भी मेरी नीयत साफ़ है, मैं बेईमान नहीं हूँ । दाम और फीस दोनों का टोटल। [जेब से बिल दूंगा, आप लोगों की मेहनत दूंगा। इस समय मुझे निकालकर उसके सामने रखता है।] बड़ी ज़ोर की भूख लगी है। आप अपने-अपने घर [लम्बोदर दूसरी ओर भागता है, उधर से हकीम पधारें, मैं अपने नौकर की मार्फत सबके पास हाथ पसारते हुए आता है।] भिजवा दूंगा। हकीम-चंगे हो गये एक ही पुड़िया में ! लाओ, अब [सबका भेजकर अन्त में खुद भी चला जाता हमारा मेहनताना दो। लम्बोदर-अरे बाप रे! [तीसरी ओर भागता है। उधर (पटाक्षेप) से ज्योतिषी जी फूल-पत्ती लिये हुए आते हैं।।] है। गीत लेखिका, श्रीमती तारा मेरी भीगी पलकों पर, किसने ये चित्र बनाये री। भरती नव-जीवन की लाली । मधु-ऋतु को ज्वाला में जल जल, देख सजनि! ऊपर नभ पर ये पावस-घन घिर आये री बोल रही है कोयल पलपल । शरद-चाँदनी छाई भू पर, वन उपवन कलियों के नव-प्राण आज अकुलाये री! निखिल विश्व में नीरवता भर । .. सावन की सुन्दर हरियाली, अलि! इस आकुल उर में क्यों स्वप्नों के जाल बिछाये री। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy